* सम्मन-मूसन *
श्री गुरु अर्जुन साहिब के वक्त दो व्यक्ति, पिता और पुत्र अच्छे प्रेमी और शब्द के अभ्यासी थे। पिता का नाम सम्मन और पुत्र का नाम मूसन था। वे मजदूरी करके अपना गुजारा करते थे। जब गुरु साहिब अमृतसर से लाहौर गये तो कोई सेवक कहे कि मेरे घर खाना खाओ,कोई कहे मेरे घर खाओ। यह देख कर गुरु साहिब ने कहा कि आप लिस्ट बना लो कि किस दिन किसके घर प्रसाद है।
यह बात सुन कर सम्मन और मूसन को भी शौक हुआ कि हम भी प्रसाद करें। खर्च को पूरा करने के लिये और अधिक मजदूरी कर लेंगे। सो उन्होनें भी लिस्ट में नाम लिखवा दिया। जब प्रसाद करवाने का समय नजदीक आया तो वे बीमार पड़ गये। जो रुपये कमाये हुए थे, दवा और खाने-पीने में खर्च हो गये। अब प्रसाद कराने का दिन आ गया। लांगरियों का नियम था कि जो खाना उन्हें सुबह बनाना हो उसके लिये वे रात को ही बर्तन और अन्य सामान तैयार कर लेते थे। रात को लांगरी आये और उनसे बोले, “ भाई जी ! सुबह आपके घर प्रसाद है सो हमें सामान दो। ” अब उनके पास कोई चीज तैयार नहीं थी। आपस में सलाह करते हैं कि क्या करें। आखिर सलाह हुई कि चोरी करके इस जरूरत को पूरा किया जाये। बाद में इतना रुपया कमा कर वापस कर देंगे। सतगुरु की सेवा जरूर करनी है। अगर प्रसाद न किया तो गुरु साहिब क्या कहेंगे ? यह सोच कर उन्होंने लांगरियों से कहा कि अभी तो नहीं लेकिन कल सूरज निकलने से पहले ही सारा सामान दे देंगे। लांगरी चले गये।
उनकी गली में एक साहूकार की दुकान थी। रात को उसकी दुकान में सेंध लगाई। जो कुछ उन्हें सामान चाहिये था सब निकाल लिया। सिर्फ नमक मिर्च बाकि रह गया। पहले तो कहने लगे कि यह मसाला वगैरह रहने दें, फिर सोचा कि नहीं, दुबारा चल कर नमक-मिर्च भी ले आयें। जब वे मिर्च-मसाला लेने लगे तो साहूकार जाग पड़ा। उस समय बाप तो दुकान से बाहर आ गया था, बेटा सेंध से निकल रहा था। जब सिर बाहर निकाला तब साहूकार ने उठ कर नीचे से टांगें पकड़ लीं। अब वह पूरा बाहर न निकल सका। बाप सिर की ओर से पकड़ कर खींचने लगा और साहूकार पैर की ओर से। अब न बाप छोड़े न साहूकार छोड़े। बड़ी खींचातानी हुई। आखिर बेटे ने बाप से कहा कि आप मेरा सिर काट लो। सिर से ही पहचान होती है, अगर सिर न हुआ तो लाश किस तरह पहचानी जायेगी। अब बाप अपने ही बेटे का सिर किस तरह काटे ! उसने कहा, “ मैं सिर नहीं काट सकता।” पुत्र ने कहा, “पिता जी ! गुरु के लिये मेरा सिर काट लो, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हमारे गुरु की बदनामी हो। इस तरह बदनामी भी नहीं होगी और सतगुरु की सेवा भी हो जायंगी।”
बाप ने थोड़ी देर विचार किया, फिर मारी तलवार और पुत्र का सिर काट लिया। धड़ नीचे जा गिरा। सम्मन ने पुत्र मूसन का सिर लाकर घर में रख दिया। अब बेटे की मौत, कलेजा कैसे ठहरे ? बड़ी मुश्किल से एक घण्टा गुजारा। उधर साहूकार ने कहा कि चोर को देखें तो सही कौन है ?जब देखा, उसका सिर नहीं है। उसको फिक्र हो गया। मन में सोचता है अगर इसको यहाँ से कहीं और न हटाया तो सुबह पुलिस मेरे दरवाजे पर खड़ी होगी और मैं पकड़ा जाऊँगा। पुलिस कहेगी कि तूने सिर काटा है। हो न हो किसी के घर रख दें। उसने सम्मन को बुला कर उठवाई और कुछ रुपये भी दिये कि इसको ठिकाने लगा दे, मैं तुझे और भी खुश कर दूँगा। सम्मन ने धड़ को वहँा से उठा लिया और अपने घर लाकर धड़ और सिर दोनों जोड़ कर रख दिये। उसका बहुत- सा दुःख कम हो गया। सोचा कि मैं अब कहूँगा, जी मूसन बीमार है।
जब सुबह हुुई, लांगरी आये। सम्मन ने उनको सारा सामान दे दिया। लांगरी लगे प्रसाद तैयार करने। जब प्रसाद तैयार हो गया तब गुरु साहिब आये। गुरु साहिब ने कहा, “सम्मन, मूसन को बुला। ” सम्मन ने उनसे अर्ज की, “महाराज जी ! वह बिमार है।” गुरु साहिब ने फरमाया, “बीमार है तो क्या हुआ। उसे तू बुला।” सम्मन बोला, हजूर ! वह नहीं आ सकता। गुरु साहिब कहने लगे, नहीं उसको आना चाहिये। सम्मन ने हाथ जोड़ कर अर्ज की, हजूर ! मेरे कहने से वह नहीं आता। गुरु साहिब बोले, अच्छा तो फिर मैं बुलाऊँ ? सम्मन ने कहा, जी हाँ ! जरूर बुलाओ। गुरु साहिब ने आवाज लगाई, मूसन ! उठ कर बाहर आ जा, ऐसे वक्त तू कहाँ चला गया है ? गुरु जी का इतना कहना था कि मूसन उठ कर नौ-बर-नौ ( ठीक-ठाक ) होकर बाहर आ गया और मूसन और सम्मन दोनों गुरु साहिब के चरणों पर गिर पड़े।
सो मतलब यह कि जिन्होंने तन-मन दिया उन्होंने अपना सबकुछ कुर्बान कर दिया।