{ खजूरों की चाह }
एक महात्मा बाजार में से गुजर रहा था। रास्ते में एक कुँजड़े ने खजूरें बेचने के लिए रखी हुई थीं। मन ने कहा कि ये खजूरें लेनी चाहिएँ। उसने मन को समझाया। मन दुनिया के विषय-विकारों का आशिक है। जब रात को सोया तो खजूरें सामने आ गयी। सारी रात मन भजन में न लगा। विवश होकर सवेरे जंगल में गया। एक बड़ा गट्ठा लकड़ियों का, जितना उठा सकता था, उठाया। मन से कहा कि तुझे खजूरें खानी हैं तो बोझ उठा। गट्ठा उठाकर थोड़ी दूर ही चलता था कि गिर पड़ता, फिर चलता, फिर गिर पड़ता। एक गट्ठा उठाने की हिम्मत नहीं थी, दो गट्ठों के बराबर बोझ उठा लिया! बार-बार गिरता लेकिन फिर चल पड़ता था। मन से बोला कि तुझे खजूरें खानी हैं तो बोझ उठा। मुश्किल से दो ढाई मील चलकर शहर पहुँचा, लेकड़िया बेची, तो पैसे मिले उनकी खजूरें खरीदकर जंगल में ले गया। खजूरें सामने रखीं। फिर मन से कहा कि आज तूने खजूरें माँगी हैं, कल फिर कोई और अच्छे खाने, अच्छे-अच्छे कपड़े माँगेगा, फिर स्त्री माँगेगा। अगर स्त्री आयी तो बाल-बच्चे होंगे। तब तो मैं तेरा ही हो जाऊँगा। एक मुसाफिर जा रहा था, उसे बुलाकर बोला, ’ले भाई ले, ये खजूरें ले जा।’
अगर मन का कहना नहीं मानोगे तो मनुष्य-जन्म का लाभ उठाओगे। अगर मानोगे तो मन के गुलाम बने रहोगे। शिष्य को चाहिए कि गुरु के हुक्म में रहे, मन के कहे न चले! जो गुरु की मरजी हो वही करना चाहिए, चाहे घास खोदने की हुक्म हो।