{ सच्चा शिष्य कौन ? }
सत्ता और बलवंडा नामक दो पाठी थे। वे गुरु अर्जुन साहिब के दरबार में कीर्तन किया करते थे। उन्हें भ्रम हो गया कि उनके कीर्तन के कारण ही इतनी संगत जुड़ती है। उन्हें भ्रम हो गया कि उनके कीर्तन के कारण ही इतनी संगत जुड़ती है। इसी अभिमान ने उन्हें लालची बना दिया। उनके घर एक जवान लड़की थी, जिसकी शादी की उन्हें फिक्र थी। एक दिन गुरु साहिब से कहने लगेे कि लड़की की शादी करनी है, हमें कुछ रुपयो की जरूरत है। गुरु साहिब ने कहा, ’ बहुत अच्छा।’ यह कहकर आपने सौ, दो सौ रुपये देने चाहे, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और कहा कि आपके दरबार में सैकड़ों शिष्य आते हैं, आपको किस बात की कमी है? अब संतों के पास इतना रुपया कहाँ ? जब गुरु साहिब ने कोई जवाब न दिया तो पाठी कहने लगे, ’ और कुछ नही ंतो हमें कम से कम एक टका प्रति शिष्य वसूल कर दो। इससे हमारी बहुत मदद हो जायेगी।’
उनका खयाल था कि गुरु साहिब के शिष्य काबुल कंधार तक है, हमारे हजारों रुपये बन जायेंगे। महीना बीत गया पर पाठियों को कुछ भी प्राप्त न हुआ। उनहोंने गुरु जी से फिर विनती की कि उनकी माँग पूरी कर दी जाये। गुरु जी ने कहा कि शीघ्र ही तुम्हारी माँग पूरी कर दी जायेगी। दो मास और बीत गये, पर न तो उन्हें कोई चढ़ावा ही आया और न ही गुरु जी ने किसी को चढ़ावा देने के लिए कहा।
पाठी फिर गुरु जी के पास गये और उन्होंने अपनी अर्ज दोहरायी और कहा कि आप अपना वचन पूरा कीजिये। गुरु जी ने कहा कि कल तुम्हारी माँग पूरी हो जायेगी। पाठियों ने सोचा कि संगत जो भी लाती है उसे संगत पर र्खच कर दिया जाता है, गुरु जी अपने पास बचाकर कुछ भी नहीं रखते, तो वे कल अपना वचन कैसे पूरा करेंगे ? क्या वे किसी से उधार लेकर देंगे ? लेकिन जब दूसरे दिन गुरु साहिब ने साढ़े चार टके आगे रख दिये, तो वे देखकर हैरान रह गये। गुरु साहिब ने उनकी हैरानी दूर करते हुए कहा, ’ पहले सिक्ख गुरु नानक साहिब, दूसरे सिक्ख गुरु अंगद देव, तीसरे सिक्ख गुरु अमरदास, चैथे सिक्ख गुरु रामदास जी, और मैं अभी आधा सिक्ख ही हूँ। इसलिए मैं तुम्हें वही दे रहा हूँ जो तुमने माँगा है यानी एक टका प्रति सिक्ख। गुरु जी ने फरमाया, ’ भाई! सच्चा शिष्य बनना आसान नहीं है। दुनियावी इच्छाओं और प्रलोभनों को त्यागकर केवल प्रभुभक्ति की ओर ध्यान देना चाहिए। प्रभप्रेम को दुनिया के धन से नहीं आँका जा सकता।’