* या भीख *
दिल्ली से थोड़़ी दूर पीरांन कलीयर गाँव में साई भीख जी अच्छे कमाई वाले महात्मा हुए हैं। उनका एक शिष्य था। वह मस्ती की हालत में एक दिन दिल्ली के बाजारों में मुर्शिद के इश्क में ‘या भीख’ के नारे लगाता हुआ जा रहा था। पास से काजी निकला, कहने लगा, ‘ अरे काफिर! क्या बकता है। तू खुदा कह, रसूल कह, यह भीख कौन है ? फिर पूछा, तेरा नाम क्या है ? कहता है कि ‘भीख‘। फिर पूछा तेरा रब्ब कौन है ? कहता है .‘भीख‘। तेरा रसूल कौन है? ’भीख।’
जब काजी ने देखा कि यह यों नहीं समझता तो पकड़ कर दिल्ली की मसजिद में ले गया। उलेमाओं को इकट्ठा किया और कहा कि इसको समझाओ। अब ऐसे प्रेमी आशिकों को कौन समझाये! सब जोर लगा कर थक गये, लेकिन वह न माना। आखिर उलेमाओं ने मिलकर उसको कत्ल करने का फतवा दे दिया।
उस जमाने में यह नियम था कि कत्ल के फतवे के ऊपर जब तक बादशाह दस्तखत न करे तब तक मुफ्ती कभी कत्ल नही कर सकते थे। फतवा देकर बादशाह के आगे पेश किया। अकबर का राज्य था। अकबर ने देखा कि यह तो कोई मस्त है, इसका कत्ल मुनासिब नहीं। पूछा, तेरा खुदा कौन है ? कहता है, ‘भीख‘। फिर पूछा, तेरा रसूल कौन है, ‘भीख‘। उन दिनों बारिश नहीं हुई थी, बड़ा अकाल पड़ा हुआ था।
अकबर ने कहा, ‘ अपने भीख से बरसात करवा दो।‘ कहने लगा पूछ लूँगा! पूछा कब ? बोला परसों। बादशाह ने हुक्म दिया कि इसको छोड़ दो। उलेमा कहने लगे कि यह भाग जायेगा। अकबर ने कहा परवाह नहीं भाग जाने दो। शिष्य ने जंगल में जाकर अपने मुर्शिद का ध्यान किया। मालिक की मौज, बरसात हो गई। अगले दिन खुद बादशाह की कचहरी में हाजिर हो गया। बादशाह ने कहा कि बारिश हो गई। कहता है, भीख ने कर दी। अकबर ने कहा, कुछ माँगो। कहता है, भीख के सिवा मुझे किसी की जरूरत नहीं। बादशाह ने उसका इतना मुर्शिद-प्यार देख कर इक्कीस गाँवों का पट्टा उसके मुर्शिद के नाम करवा दिया और अपने नौकरों के हाथ पट्टा साई भीख के पास भेज दिया।
यह देखकर सब हैरान हो गये कि उस तालिब ने पट्टा वापिस बादशाह को लौटा दिया और कहा, ’हजूर, मेरे मुशिर्द की नजरों में इन गाँवों की कोई अहमियत नहीं, क्योंकि ये सब दुनियावी चीजें हैं। मैं बड़े अदब से इन्हें आपको वापिस करता हूँ।
अकबर बादशाह महात्माओं की इस प्रविृत्ति से अच्छी तरह परिचित था। फिर भी उसने अपने कुछ आदमियों के हाथ वह पट्टा भीख को भेज दिया।
फिर जब शिष्य अपने मुर्शिद के पास पहुँचा, तो मुर्शिद ने पूछा, ‘ देख, तूने क्या माँगा! बारिश! उस वक्त तू अगर कहता कि मुझे वली बना दे, कुतुब बना दे, औलिया बना दे, या कुछ और कहता तो मैं तुझे बना देता। जिस वक्त तूने मेरा ध्यान किया, मेरा ध्यान अपने मुर्शिद में था और मुर्शिद का ध्यान दरगाह में। शिष्य ने कहा, ‘हजरत! मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। मुझे तो सिर्फ आपकी जरूरत है।
इसी का नाम है शरण।