*नदी पार करने का मन्त्र*
ज़िक्र है, एक स्त्री किसी महापुरूष की सेवा करती थी। महात्मा का डेरा नदी के पार था। उसका नियम था कि हर रोज महात्मा के लिये दुध ले जाना, सत्संग सुनना और वापस आ जाना।
पहाड़ी इलाकों में कई जगह जरूरत के मुताबिक दरिया पर पुल बाँध देने का रिवाज है। जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तो पुल तोड़ देते हैं। जब पुल टूट जाता है तो वहाँ आना जाना बन्द हो जाता है। वह इलाका भी इसी तरह का था। कुछ समय तो वह स्त्री महात्मा की सेवा करती रही। आखिर एक दिन कहने लगी, “महात्मा जी ! मैं रोज दूध लाती थी। कल पुल टूट जायेगा, इसलिये कल से मैं नहीं आ सकूँगी।” उन्होंने एक शब्द बताया और कहा, “यह शब्द पढ़ती हुई पानी से इसी तरह आया-जाया करना, जिस तरह पुल या जमीन पर चलते हैं।”
वह रोज दूध लेकर आती और वापस चली जाती। किसी गुरुद्वारा के भाई को पता लगा। उसने उस बीबी को बुला कर पूछा कि तू क्या पढ़ती है, जिससे पानी में डूबती नहीं। उसने उसे बता दिया। अब ’शब्द ’ तो कमाई हुई चीेज होती है, न कि लिखने-पढ़ने की। लेकिन भाई को क्या पता ! मन में कहता है, अच्छा! चलो चलें। अपने शिष्यों के झुण्ड के साथ ले आया, एक रस्सी लेकर अपनी कमर में बाँध ली। शिष्यों से कहा कि अगर मैं डूबने लगूँ तो मुझे खींच लेना।
अब यह तो भरोसे, मेहनत और गुरु की दया की चीज थी। शब्द पढ़ता हुआ पानी में दाखिल हुआ ही था कि लगा डूबने। फौरन कहता है,“खींचो! खींचो!!” शिष्यों ने एकदम खींच लिया।
सतगुरु उसकी मदद करते हैं जो उन पर पूरा भरोसा रखता है। उसी शब्द में ताकत है जो किसी सन्त-सतगुरु ने बख्शा हो।