१ :-*हजरत ! मैं कहाँ जाता*
ज़िक्र है, निज़ामुद्दीन औलिया के बाईस शिष्य थे। हरएक चहाता था कि गद्दी मुझे मिले। उन्होंने परखना चाहा। कहने लगे, आओ आज शहर की सैर को चलें। जिन-जिन ने देखा, कहने लगे कि आज पीर भी बाज़ारों में फिरता है और मुरीद भी, दो-एक बाज़ार पार करके नीचे के बाज़ार में आ गये। लोगों ने कहा कि आज पीर मुरीदों सहित किस बाज़ार में घूम रहे हैं। आप एक वेश्या के दरवाजे़ पर खड़े हो गये और मुरीदों से कहा कि तुम यहाँ खड़े रहो, कोई न जाये, मुझे ऊपर काम है। यह कह कर कोठे पर चढ़ गये, घर वाली हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। कहने लगी, “मेरे धन्य भाग! आज मेरे घर महात्मा आये। मैं तो बड़ी ऐब-पाप वाली थी। कुछ हुक्म करो।” आपने कहा कि हमें यहाँ रात ठहरना है, हमें कोई अलग कमरा दे दो और तुम किसी और कमरे में आराम कर लो। अपने नौकर से कहोकि एक थाली में एक कटोरी दाल, दो-चार फुल्के और एक बोतल शर्बत को ढक कर ले आये। उसने कहा, “ जी! सत्य बचन।” नौकर को बुलाकर कहा कि यह चीज़े ढक ले आओ। वह उसी तरह ढक कर ले आया। शिष्यों ने कहा कि पीर की पीरी निकल गई, अब शराब-कबाब उड़ेगा। हाथ पर हाथ मार कर पहले एक खिसका, फिर दूसरा, फिर तीसरा। इसी तरह इक्कीस चले गये, एक बाकी रह गया।
दाल-रोटी किसे खानी थी और शर्बत किसे पीना था,आप को तो शिष्यों की परख करनी थी। जब सुबह हुई, नीचे उतरे। देखा कि एक अमीर खुसरो खड़ा है। आपने पूछा, “बाकी कहाँ गये ?” उसने कहा कि अमुक इस वक्त चला गया अमुक उस वक्त चला गया, इसी तरह सब चले गये। पीर साहब ने पूछा कि तू क्यों नहीं गया ? कहता है,“ हजरत ! चला तो मैं भी जाता, परन्तुु आपके बिना मुझे काई जगह दिखाई नहीं दी, मैं कहा जाता ? आपने हँस कर उसे गले लगा लिया और गद्दी दे दी। सो जब फ़कीर देखते हैं कि कौन काबिल हैं,कौन नहीं।
*राधा स्वामी जी *
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२ :-*सत्तर बार चबूतरेे*
गुरु अमरदास जी के दो लड़के थे और एक दमाद था। हर सेवक यही चहाता था कि गद्दी मुझे मिले। गुरु साहिब ने इम्तिहान की कसौटी पर रख दिया। हुक्म दिया कि अमुक मैदान में अपनी-अपनी मिट्टी लाकर चबूतरे बनाओ। लोगों नेे चबूतरे बनाये। आपने कहाए ये ठीक नहीं हैं, फिर बनाओ। लोगों ने फिर बनाये। आपने कहा, ये भी ठीक नहीं हैं। लोगों ने तीसरी बार बनाये। आपने कहा, यह जगह ठीक नहीें है, अपनी-अपनी मिट्टी उस मैदान में ले जाओ और फिर बनाओ। लोगों ने फिर बनाये, लेकिन आपने पसन्द न किये। उस वक्त गुरु साहिब की उमर पचानवे वर्ष की थी। जब चार-पाचँ बार इस तरह हुआ, तब लोगों ने सोचा कि सत्तर साल के बाद आदमी की अक्ल कायम नहीं रहती, गुरु साहिब की उमर तो पचानवे साल की है, इनकी भी अक्ल कायम नहीं है। यह सोच कर काफी दुनिया हट गई। जो लोग रहे उनसे गुरु साहिब चबूतरे बनवाते रहे और गिरवाते रहे।
आखिर कब तक ! एक-एक करके सभी छोड़ गये। एक गुरु रामदास जी रह गये, जो चबूतरे बनाते और गुरु साहिब के पसन्द न करने पर गिरा देते। लोगों ले रामदास जी से कहा कि तुम भी छोड़ दो, लेकिन आपने न छोड़ा। आखिर वे लोग कहने लगे कि गुरु भी पागल है और तू भी पागल है। गुरु की अक्ल कायम नहीं है। आप रो पड़े और कहा कि अगर गुरु की अक्ल कायम नही ंतो किसी की भी अक्ल कायम नहीं है। गुरु साहिब इसी तरह सारी उमर हुक्म देते रहेंगे, तो रामदास सारी उमर चबूतरे बनाता रहेगा।
ग्रन्थकार लिखते हैं कि सत्तर बार चबूतरे बनाये और सत्तर बार गिराये गये। गुरु साहिब क्यों बनवाते और गिरवाते थे ? केवल इसलिये कि जिस हृदय में नाम रखना है और जहाँ करोड़ों जीवों को फ़ायदा उठाना है, वह हृदय भी कुछ होना चाहिये। गुरु रामदास जी का दृढ़ प्रेम देख कर आख़िर गुरु अमरदास जी ने उनको अपनी छाती से लगा लिया और भरपूर कर दिया। ऐसे होते है सतगुरु।
*राधा स्वामी जी *
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३ :-*पूरे सतगुरु की संगत की सेवा का फल!
एक सत्संगीं बीबी को ब्लड कैंसर हो गया उसने भारत में इलाज करवाया बात नहीं बनी तो सिंगापुर के कैन्सर स्पेशलिस्ट के पास गयी उसके पास भी निराशा हाथ लगी उसने कहा बीबी लेट हो गये हो अब ज़्यादा देर तक आप जीवित नहीं रह पाओगी
बड़ी मायूसी के बाद वो Beas में आयी बाबा जी से मुलाक़ात करके सारी कहानी सुनायी!
बाबा जी ने सब धैर्य से सुना और उन्हें हुक्म किया कि मास्टर पूर्ण सिंह जी के पास जाकर सेवा करो
मास्टर जी ने उन्हें झाड़ू पकड़ा दिया कहा बीबी एक महीना सेवा करो एक महीना तक सेवा की मास्टर जी से अगला आदेश पूछा मास्टर जी ने उनके माथे पे नज़र डाली फिर और पन्द्रह दिन के सेवा करने को कहा
पंद्रह दिन की सेवा के बाद उसे छुट्टी दी!
इस डेढ़ महीने की सेवा के बाद वो फिर सिंगापुर गयी और सभी टेस्ट दोबारा करने पे डाक्टर ने रिपोर्ट्स देखने के बाद सिर पकड़ लिया बोला ये असंभव काम किसी खुदाई चमत्कार का हो सकता है क्यूँकि मेडिकल साइंस में तो इसका कोई इलाज नहीं है !!
इस प्रकार संगत की सेवा करने से बीबी का लास्ट स्टेज का कैंसर भी ठीक हो गया जी
संगत की सेवा अनमोल है सो हमें मौक़ा नहीं गँवाना चाहिए जी
*जी राधास्वामी*
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४ :-*नदी पार करने का मन्त्र*
ज़िक्र है, एक स्त्री किसी महापुरूष की सेवा करती थी। महात्मा का डेरा नदी के पार था। उसका नियम था कि हर रोज महात्मा के लिये दुध ले जाना, सत्संग सुनना और वापस आ जाना।
पहाड़ी इलाकों में कई जगह जरूरत के मुताबिक दरिया पर पुल बाँध देने का रिवाज है। जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तो पुल तोड़ देते हैं। जब पुल टूट जाता है तो वहाँ आना जाना बन्द हो जाता है। वह इलाका भी इसी तरह का था। कुछ समय तो वह स्त्री महात्मा की सेवा करती रही। आखिर एक दिन कहने लगी, “महात्मा जी ! मैं रोज दूध लाती थी। कल पुल टूट जायेगा, इसलिये कल से मैं नहीं आ सकूँगी।” उन्होंने एक शब्द बताया और कहा, “यह शब्द पढ़ती हुई पानी से इसी तरह आया-जाया करना, जिस तरह पुल या जमीन पर चलते हैं।”
वह रोज दूध लेकर आती और वापस चली जाती। किसी गुरुद्वारा के भाई को पता लगा। उसने उस बीबी को बुला कर पूछा कि तू क्या पढ़ती है, जिससे पानी में डूबती नहीं। उसने उसे बता दिया। अब ’शब्द ’ तो कमाई हुई चीेज होती है, न कि लिखने-पढ़ने की। लेकिन भाई को क्या पता ! मन में कहता है, अच्छा! चलो चलें। अपने शिष्यों के झुण्ड के साथ ले आया, एक रस्सी लेकर अपनी कमर में बाँध ली। शिष्यों से कहा कि अगर मैं डूबने लगूँ तो मुझे खींच लेना।
अब यह तो भरोसे, मेहनत और गुरु की दया की चीज थी। शब्द पढ़ता हुआ पानी में दाखिल हुआ ही था कि लगा डूबने। फौरन कहता है,“खींचो! खींचो!!” शिष्यों ने एकदम खींच लिया।
सतगुरु उसकी मदद करते हैं जो उन पर पूरा भरोसा रखता है। उसी शब्द में ताकत है जो किसी सन्त-सतगुरु ने बख्शा हो।
*राधा स्वामी जी *
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५ :-*चोर से कुतुब*
हज़रत अब्दुल कादर जिलानी बड़े कमाई वाले महात्मा थे। मुसलमानों में फ़कीरों के दर्जे होते हैं-कुतुब, गौस आदि। किसी जगह का कुतुब मर गया था। वहाँ के लोगों ने आकर अर्ज़ कि हज़रत, हमें कुतुब चाहिये। आपने कहा कि भेज देंगे। कुछ दिन बाद वे फिर आये और अर्ज़ की कि हज़रत कुतुब चाहिये। कहने लगे, भेज देंगे। वे कुछ दिन इन्तिज़ार करने के बाद फिर आये और बोले कि हज़रत कुतुब की ज़रूरत है। आपने कहा ,“ अच्छा कल ले जाना।” वह भी आँखों वाले (अन्तरयामी) थे। उन्होंने नज़र मार कर देखा कि क्या इन मुरीदों में कोई कमाई वाला है? लेकिन कोई कुतुब के लायक नज़र न आया। मन में सोचा कि कुतुब कहाँ से देंगे। शायद कहीं बाहर से भेज देंगे।
रात को एक चोर पीर साहिब के यहाँ घोड़ी चुराने के लिये आया। पहले आगे के पैर खोले फिर पीछे के। जब पीछे के खोले तो आगे के बँध गये। जब आगेे के खोले तो पीछे के बँध गयेे। चोर हठीला था। कहता है घोड़ी ज़रूर लेकर जानी है। सारी रात खोलता रहा। जब भजन का वक्त हुआ तो पीर साहिब जागे। क्या देखते हैं कि एक व्यक्ति घोड़ी खोल रहा है। आपने पूछा, “भाई, तू कौन है और क्या कर रहा है ?” उसने कहा, “ ऐ हज़रत ! मैं चोर हूँ, सारी रात लगा रहा और बना कुछ नहीं !” आपको उसकी यह आदत पसन्द आ गई कि इसने सच कहा है। प्यार के साथ कहा, “आ तुझे यह घोड़ी दे दूँ।” ज्यों नज़र भर कर देखा, चोर से कुतुब बना दिया। जब दूसरा दिन हुआ तो उन आदमियों ने आकर अर्ज़ की कि हज़रत, हमें कुतुब दो। आपने कहा यह ले जाओं।
ऐसी एक-आध घटना हरएक महात्मा के जीवन में होती है।
*राधा स्वामी जी *
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६:-*दो रुपये के अनार*
दिल्ली में नासिरुद्दीन महमूद एक बादशाह हुआ हैं। उसका नियम था कि खज़ाने से अपने लिये कुछ खर्च न करना, बल्कि हक़ की कमाई से अपना गुजारा करना। उसका काम क्या था ? दरबार के काम से फ़ारिग होकर अपने हाथ से कुरान शरीफ़ लिखना और इस ख़याल से कि लोग उचित से ज़्यादा कीमत न दें, नौकर को देना कि इसको बाज़ार में जाकर बेच आ। नौकर बेच कर जो पैसे लाता उससे अपना और बीवी-बच्चों का गुज़ारा करता था।
जो उसका नौकर था उसकी कई महीनो की तनख़ाह बादशाह की और बाकी थी। एक बार नौकर के पास घर से चिट्ठी आई कि फौरन घर आओ। उसने बादशाह से कहा कि मुझे तनख़ाह दो, मुझे घर जाना है। बादशाह के पास उस समय रुपये नहीं थे, उसने टाल दिया। इस तरह कई महीने बीत गये। इतने में कई चिट्ठियाँ घर से आई कि जल्दी घर आओ। आखिर उसने बादशाह की इजाज़त प्राप्त कर ली। बादशाह ने उसको दो रुपये दिये। वह हैरान हो गया। बादशाह ने कहा, “यह मेरी हक़ की कमाई है। हक़ की कमाई में बरकत होती है। जाओ ! मालिक बरकत करेगा।”
नौकर दो रुपये लेकर चला तो आया, मगर सोचता हैं कि मैं घर जाऊँगा तो सम्बन्धी कहेंगे कि तू बादशाह का नौकर था, लाया क्या है ? उस इलाके में उस साल अनारों की फसल बहुत हुई थी। रास्ते में एक जगह बड़े सस्ते और अच्छे अनार देखे। सोचता है दो रुपयों केे यही खरीद लूँ। दो-दो चार-चार सबके हिस्से आ जायेंगे। यह सोच कर उन रुपयों के आनार खरीद लिये। अच्छा खासा गट्ठर बन गया।
गट्ठर उठा कर घर को जा रहा था। उसका घर बागड़ देश में था। इतिफ़ाक से वहाँ की रानी बीमार हो गई। बड़े-बड़े वैद्य और हकीम बुलाये गये। उन्होंने कहा कि इसकी जान तब बच सकती है जब इसको अनार मिलें।
उस इलाके में अनारों का नाम नहीं था। बादशाह नें ढिंढोरा पिटवा दिया, “ जो एक अनार लायेगा उसको एक हजार रुपया इनाम मिलेगा। ” इतने में वह नौकर भी वहा पहुँच गया। ढिंढोरा सुना। पता लगाया तो मालूम हुआ कि बात ठीक है। राज दरबार में गया। बादशाह ने अनार देखे। खुश हो गया, नौकर ने कहा जितने चाहो ले लो। बादशाह ज़रूरत के मुताबिक ले लिये और एक हजार रुपये एक अनार के हिसाब से कीमत चुका दी। फिर दो सिपाही साथ में दिये कि जाओ, इसको आराम से इसके घर पहुँचा दो। अब वह हज़ारों रुपयों का मालिक बन गया था। सो यह ह़क की कमाई का फायदा।
*राधा स्वामी जी *
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७ *भाई बेला*
गुरु गोबिन्दसिंह जी के सत्संग में एक सीधा-सादा जाट चला आया और गुरु साहिब से कहने लगा कि मुझे कोई सेवा बख़्शो। उनके जमाने में मुगलों से लड़ाइयाँ होती रहती थीं। कहने लगे, तुझे बन्दूक चलानी आती है ?” कहता है, ” नहीें।“ “ क्या तुझे तीर-कमान चलाना आता है ?“ कहता है, “नहीं !“गुरु साहिब ने कहा, “फिर तू क्या करेगा ?” कहने लगा, “ मैं घोड़ो की सेवा करूँगा।“ उन्होंने घोड़ो की सेवा पर उसे लगा दिया। बड़े प्रेम से सेवा करता रहा। लीद वगैरा बाहर फेंक आये, अच्छा घास डाले, हर प्रकार की सफाई रखे। दो-तीन महीने में घोड़े बड़े तगड़े हो गये। एक दिन गुरु साहिब ने आकर देखा तो घोड़े बड़े तगड़े थे। पूछा कि तेरा क्या नाम है ? “ कहता है, ‘ बेला‘। कहने लगे “बेलया! कुछ पढ़ा हुआ भी है ?“ कहता है कि कुछ नहीं। तब गुरु साहिब ने कहा, “अच्छा, तुझे हम पढ़ा देंगे। पढ़ा करो और साथ ही सेवा किया करो।” गुरु साहिब रोज एक तुक बता देते, वह याद करता रहता। एक दिन गुरु साहिब कहीं जा रहे थे। बेला दौड़ कर आया और बोला कि मुझे तुक दे जाओ। उन्होंने कहा कि वक्त नहीं देखता कि मैं कहीं जा रहा हूँ और फरमाया:
वह भाई बेला, न पहचाने वक्त न पहचाने वेला।
बेले ने समझा कि मुझे तुक बता गये हैं। सारा दिन प्रेम के साथ उसको रटता रहा, “वहा भाई बेला, न पहचाने वक्त न पहचाने वेला।“
अब ग्रन्थी देख कर मन ही मन में हँसने लगे कि यह बेवकूफ क्या बोलता फिरता है। जब शाम को सत्संग लगस तो ग्रंथियों ने मजाक के तौर पर गुरु साहिब से पूछा कि क्या आज कोई तुक बेले को बता गये थे ? गुरु साहिब कहने लगे “ कोई नहीं।“ उन्होंने कहा कि वह तो सारा दिन एक ही तुक रटता रहा है,“ वाह भाई बेला न पहचाने वक्त न पहचाने वेला“। हँस कर गुरु साहिब ने कहा, “जिसने वेला वक्त नहीं पहचाना, वह समझ गया, वह पार हो गया।“
अब सन्तों की मौज होती है, दया होती है। गुरु साहिब की दया थी, बेला की सुरत चढ़ गई। सारा दिन प्रेम से तुक रटता रहा था। अब सुरत अन्दर गई तो नाम के रंग में रगं गई। बाहर आई तो भी गुरु के खयााल और नाम के प्यार में लीन थी। ग्रन्थी क्रोध में आ गये कि इस दरबार में कोई न्याय नहीं है। हम कब से सेवा करते आये हैं और कुछ प्राप्त न हुआ। यह कल आया और नाम के रंग मे रंग गया। उस जमाने में ग्रन्थी पुराणों का अनुवाद कर रहे थे। कहने लगे, “पुराणों का अनुवाद किया, सेवा की, लेकिऩ़ ………….।“ क्रोध में भर गये कि यहाँ रहना ही नहीं चाहिये। गुरु साहिब ने देखा कि वे क्रोध में आ गये हैं। समझाने के लिये कुछ भाँग दे दी कि इसको प्रेम के साथ पीसो। नियम है कि भाँग को जितना ज्यादा पीसा जाता है उतना ही ज्यादा नशा देती है। खूब पीसा। भाँग का घड़ा तैयार हो गया जो गुरु साहिब ने हुक्म दिया कि भाँग की कुल्ली कर-कर छोड़ते जाओ। जब सारा घड़ा खत्म हो गया तो पूछा कि क्या नशा आया ? उन्होंने जवाब दिया कि कुछ नहीं आया । अगर पीते, अन्दर जाती तब नशा आता। गुरु साहिब ने कहा, “बेला वाले सवाल का जवाब यही है। उसके अन्दर नाम का रंग चढ़ गया है।“ मतलब तो यह है कि जब तक अन्दर प्यार न हो, मुक्ति नहीं मिलती, न परदा खुलता है और न शान्ति आती हैं।
*राधा स्वामी जी *
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८ *अंदर की तरक्की*
भजन सुमिरन में तरक्की ना होने पर हम अक्सर उदास, निराश हो जाते हैं लेकिन बाबा जी हमेशा अपने सत्संगों में फरमाते हैं कि संतमत में असफलता नाम की कोई चीज नहीं है।
इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है, चाईनींस बांस होता है, इस के पौधे को आप लगाएंगे, तो देखेंगे, कि 1 साल तक इसमें कोई वृद्धि नहीं हुई , 2 साल, 3 साल, 4 साल, 5 साल इसमें कोई वृद्धि नहीं होती।
5 साल के बाद यह अचानक बढ़ने लगता है और जमीन से सीधा 40 फुट ऊपर चला जाता है तो क्या हम यह कहेंगे कि इसमें 5 साल बाद वृद्धि हुई ? क्या इसका विकास 5 साल बाद हुआ है? नहीं ऐसा नहीं कहा जाएगा, बल्कि, यह कहा जाएगा, कि इसकी जड़ ने 5 साल लगा दिए, धीरे-धीरे बढ़ने में, जब इसकी जड़ मजबूत हुई, तभी अचानक से बढ़ा और 40 फीट ऊपर चला गया।
भजन सिमरन भी ठीक इसी तरह है अंदर ही तरक्की होती रहती है, लेकिन यह उस कुल मालिक के ऊपर है, कि हमें इसका फल कब मिलेगा ? इसीलिए, बिना नाउम्मीदी के, बिना निराश हुए, हमें हमेशा रोज बिना नागा किये भजन सिमरन में बैठना है असफलता तो संतमत में होती ही नहीं है। हाँ कितनी देर लगेगी? यह जरूर उस कुल मालिक के ऊपर है।
*राधा स्वामी जी *
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९ *मालिक तुम कहा हो *
एक मशहूर कहानी है कि कोई आदमी बड़ी श्रद्धा से प्रार्थना करता था, है मालिक! तुम कहां हो?वह हर रोज, हर घड़ी दिल से बार- बार यही प्रार्थना दोहराता था,”है मालिक तुम कहां हो?” शैतान ने जब देखा कि यह आदमी तो परमात्मा के प्रेम में मग्न हो रहा है तो उसने सोचा कि अब कुछ करना पड़ेगा। वह उस आदमी के पास गया और कहा,”अरे मुर्ख! इतने सालों से तुम यह बात कहते जा रहे हो,”है परमात्मा! तुम कहां हो?’ क्या कभी किसी ने तुम्हारी बात का जवाब दिया है?”
वह आदमी सोच में पड़ गया और उसे लगा कि सचमुच उसे कभी कोई जवाब नहीं मिला।निराश और दुःखी होकर उसने प्रार्थना करना ही बंद कर दिया। उसने सोचा कि प्रार्थना करने का क्या फायदा ? लेकिन प्रार्थना करने से उसे जो शन्ति मिलती उसके बिना वह दुःखी हो गया।तब परमात्मा ने उससे कहा “तुम यह बात क्यूं नहीं समझ पा रहे कि तुम्हारा यह पूछना कि ‘तुम कहां हो’, ही मेरा तुम्हारे अन्दर होने का सबूत है। दुसरे शब्दों में परमात्मा ने कहा, तुम कहां हो’ का ख्याल भी मैंने ही तुम्हारे अन्दर डाला है।”
इसी तरह क्या हम हम इस बात को समझते है कि रोजाना नियम से भजन सिमरन करना ही इस बात का साफ सबूत है कि परमात्मा हमें अपनी और खींच रहा है?
*राधा स्वामी जी *
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१० *धनी धर्मदास*
धर्मदास चोदह करोड़ रुपयों का मालिक था, इसलिये धनी धर्मदास कहलाता था। जाति का बनिया था और ठाकुरों की पूजा करता था। एक बार का जिक्र है कि वह गंगा के किनारे पूजा कर रहा था कि कबीर साहिब चले आये। जब वह पूजा कर चुका तो कबीर जी पास जाकर और ठाकुरों की ओर इशारा करके बोले, “यह जो बड़े है ये तो सेर के बाट होंगे और जो छोटे-छोटे है वे क्या हैं -छटाकें ? और बताओ ये कभी बोले भी हैं ?“ यह कह कर गुप्त हो गये । अब धर्मदास ने विचार किया कि बोले तो कभी नहीं बात तो ठीक है, मुझे कितना वक्त हो गया, पूजा करते को।
दूसरी बार कबीर साहिब साधु के वेश में धर्मदास के घर गये। उस समय धर्मदास एक चूल्हे में आग जला रहा था और उसकी पत्नी आमना उसके पास बैठी थी। तो कबीर साहब ने कहा, “धर्मदास ! तुम बड़े पापी हो।“ अब स्त्री अपने पति की निदा नहीं सुन सकती। उसने कहा, “तुम पापी होंगे, मेरा पति कैसे पापी है ? तूने उसका क्या पाप देखा है ?“ कबीर साहिब ने कहा, “ धर्मदास ! तुम जो यह लकड़ी जला रहे हो उसको जरा फाड़ कर देखो। “उस जमाने में लकड़ी को धोकर आग में जलाते थे। जब फाड़ कर देखा तो उसके अन्दर जिन्दा ओर मरे हुए सैंकड़ों कीड़े निकले। कबीर साहिब ने कहा, “देखो ,तुमने कितने जीव जलायंे हैं, यह पाप नहीं तो और क्या है? यह कह कर गुप्त हो गये।
धर्मदास ने सोचा कि बात तो सच्ची कही है। एक दिन आगे भी यह साधु मिला था। अगर मेरी स्त्री नाराज न होती तो मैं उससे परमात्मा के विषय में कुछ बातें पुछता। अफसोस !
अब स्त्रियाँ अपने ऊपर इलजाम नहीं लेती। उसने धर्मदास से कहा, “ आपके पास करोड़ो रुपया है, यज्ञ करें। वह यज्ञ में आप ही आ जायेगा। साधुओं की क्या कमी है। गुड़ पर मक्खियाँ आती ही रहती है।“
धर्मदास ने काशी में कई यज्ञ किये। लेकिन कबीर साहिब वहाँ न आये। और दूसरी जगह किये, लेकिन कबीर साहिब न आये। गंगा के पास यज्ञ किये, लेकिन कबीर साहिब को न आना था और न आये ही। ज्यो-ज्यों धर्मदास यज्ञों पर रुपया खर्च करता गया, उसके दिल में कबीर साहिब से मिलने की तड़प बढ़ने लगी, मगर कबीर साहिब न आये।
आखिरी यज्ञ मथुरा में किया गया। धर्मदास ने अपनी सारी सम्पति बेच कर यज्ञों में लगा दी, लेकिन कबीर साहिब न आये। जब सारा रुपया खर्च हो गया और कबीर साहिब भी न आये तो बहुत निराश हुआ। हार कर कहता है, रुपया भी गया, साधु भी न मिला, अब घर जाकर क्या करना है, यमुना नदी में डूब कर मर जाऊँ। सोचा, आबादी के नजदीक डूब कर मरूँगा तो लोग पकड़ कर निकाल लेंगे। चलो दूर जा कर डूब मरें। जब बस्ती से दूर गया तो आगे कबीर साहिब बैठे थे। चरणों पर गिर पड़ा। बोला कि मैंने आपके लिये यह किया, वह किया। कबीर साहिब ने कहा, “ देख धर्मदास ! अगर मैं पहले आकर मिलता तो तू कहता लालची है। तेरी स्त्री ने भी कहा था कि गुड़ पर मक्खियाँ आती ही रहती हैं। अब मैं तुझको वह चीज दूँगा, जो कभी नष्ट न होगी।“ आखिर उसे भरपूर कर दिया। फिर वही धर्मदास कबीर साहिब की गद्दी पर बैठा।
*राधा स्वामी जी *
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