बाबा कल्ला की समाधि
जब मैं कोहमरी में था, एक गाँव में गया। वहाँ नया थाना बना था। मैं वहाँ के बिल चैक करने गया था। उन्होंने मुझे एक चौबारे वाला कमरा दे दिया। उस कमरे के नीचे एक समाधि बनी हुई थी। कमरा बड़ा हवादार था। जब रात को वहाँ सोया तो पूछा यह समाधि किसकी है ? उन्होंने उसका हाल इस तरह बयान किया:
बाबा कल्ला एक कमाई वाला साधू था। अच्छा अभ्यास करता था और उसे ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त थीं। वहाँ औरतें, आदमी पशु चराते थे। वह पहाड़ी इलाका था। जब लोग अपने पशुऔं को ऊँची पहाड़ी पर ले जाते थे तो कभी उनमें से एकाध जानवर गिर कर मर जाता था। एक बार जब एक औरत की भैंस चरते-चरते पहाड़ी से गिर कर मरने लगी तो उसने चिल्ला कर आवाज दी, बचाना, बाबा कल्ला ! मेरी भैंस को बचाना। भैंस बच गई।
जब भैस बच गई तो वह औरत चुपचाप उसको लेकर अपने घर चली गई। जब बाबा कल्ला की कुटिया के पास से निकली, तो बाबा ने उसे कहा, ’’जिसने भैंस बचाई है, अब उसकी बात भी नहीं पूछती ?’’ होते-होते लोगों को पता लग गया कि एक औरत की भैंस बाबा कल्ला ने बचाई है।
बाबा कल्ला ने कुछ गायें पाल रखी थीं। उस पहाड़ी पर छोटे-मोटे शेर और पहाड़ी जानवर रहते थे। एक दिन एक शेर ने उसकी गायों पर हमला किया, जिससे उसकी दो गायंे मर गई। लोगों ने कहा कि बाबा, तेरी गायों को शेर ने मार दिया है। इस पर वह बोला, ’मेरी गायें रात को आप ही यहाँ आ जायेंगी।’ जब शाम हुई तो वहीं से तवज्जह देकर पुकारा, ’ दूड़ू!दूड़ू!’ उसी वक्त गायें आ गई और शेर मर गया। इस घटना को सुन कर उसकी बड़ी चर्चा हुई। लेकिन जब मौत आई तो उसे बहुत तकलीफ हुई, क्योंकि जो कमाई थी वह उसने खर्च कर दी थी! पस में कुछ न रहा था। एक उसका गुरु-भाई था। चुप रहता था। जो कमाई वाले महात्मा होते हैं वह हमेशा मालिक की रजा में राजी रहते हैं और कहते हैं, जो उसकी मौज।
जब उसका गुरु-भाई उसके पास आया तो उसकी तकलीफें देख कर बोला,’ तुझे कौन कहता था भैसों को जिन्दा कर। बन्दूकें चला। तूने कमाई खर्च कर दी है, अब भुगत।’
इसलिये जितना मन को चुपचाप रखो, कमाई को ऋद्धि-सिद्धि के द्वारा खर्च न करो, उतना ही फायदा है।
एक सत्संगी: हुजूर। मेरी कमाई रामसिंह ले गया, जोकि बाग में रहता था। मैंने जो कुछ अन्दर देखा, उसको बता दिया। अब कृपा करो, मुझे चैन नहीं आता।
महाराज जी: मैं क्या करूँ, अगर बता दिया है तो अपनी गलती का नतीजा भुगतो। अच्छा, अब खूब भजन-सुमिरन कर और आगे से न बताना। जा बैठ जा।
एक और सत्संगी: हुजूर। आपको ही परदा खोलना है। परदा खोलने वाले भी आप हैं और बन्द करने वाले भी आप ही हैं। आप परमात्मा हैं।
महाराज जी: नहीं, नहीं। ऐसे न कहो।
अजहु सु नाव समुंद्र महि किआ जानउ किआ होइ।। ( आदि ग्रन्थ, पृ.1366 )
एक स्त्री थी। उसके रिश्तेदारों में एक अच्छा कमाई वाला महात्मा था। कुछ तो कमाई और कुछ बेफिक्री और निश्चिन्तता के फलस्वरूप उसके चेहरे पर हमेशा रौनक और खुशी रहती थी। एक दिन उस स्त्री ने पूछा, ’ तेरे मुहँ पर यह क्या है ? दाढ़ी है झाड़ी ? वह महात्मा चुप रहा। इसी प्रकार वह औरत यह सवाल करती रहती और महात्मा खामोश रहता। जब उसकी मौत का समय निकट आया तो उसने स्त्री को बुलवाया। वह स्त्री सामने आई तो महात्मा ने उससे कहा, ’ अब वह बात पूछो ?’’ जब उसने पूछा, तो महात्मा ने उत्तर दिया, ’ आज मेरे मुँह पर दाढ़ी है और मैं इसको बेदाग और पवित्र लेकर जा रहा हूँ।’ यह सुन कर स्त्री ने कहा, ’ यह जवाब तो आप पहले भी दे सकते थे। इतने दिन चुप रहने की क्या जरूरत थी ?’ महात्मा ने कहा, ’मन का कुछ पता नहीं। इसका क्या भरोसा कि कब गिरा दे। दुनिया में रहते हुए कभी गर्व नहीं करना चाहिये। अब मेरा अन्त समय आ गया है और मालिक की दया से मैं अपनी दाढ़ी को बेदाग लेकर जा रहा हूँ।’