* ज्ञान की ठोकर*
श्री गुरु अमरदास जी का वृत्तान्त है। आप बाईस बार गंगा गये। जब आखिरी बार गंगा-स्नान के लिये गंगा जा रहे थे तो रास्ते में एक ब्रह्मचारी मिला, उसने पूछा, ’कहा जा रहे हो ?’ आपने जवाब दिया, ’’गंगा-स्नान करने। और आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ ब्रह्मचारी ने कहा, मैं भी गंगा-स्नान करने जा रहा हूँ।’’ दोनों इकटठे चल पड़े।
इकटठे रोटी खाई, जाती बार धीरे-धीरे गंगा गये। स्नान किया और वापस आ गये। पहले गुरु अमरदास जी का घर आया। अभी ब्रह्मचारी की मंजिल बाकी थी। बातचीत करते उनमें प्रेम-प्यार हो चुका था। दोनों एक दूसरे को आदर के साथ देखते थे। गुरु साहिब ब्रह्मचारी को घर ले गये। जब रात को सोने लगे तो ब्रह्मचारी ने पूछा, ’’ भाई अमर ! तुम्हें गुरु से नाम लिये कितना समय हुआ है ?’’ अमरदास जी ने जवाब दिया, ’’ मेरा तो कोई गुरु नहीं। यह सुनते ही वह बोला, हैं ! क्या तेरा कोई गुरु नहीं ? तू निगुरा है। अफसोस अगर मुझे पहले पता होता कि तू निगुरा है तो मैं कभी तेरी रोटी न खाता। मेरा सारा कर्म-र्धम नष्ट हो गया। यह कह कर वह बड़े दुखी दिल से उसी वक्त अपना बिस्तरा लेकर चल पड़ा।
जब वह चला गया तो अमरदास जी को बहुत अफसोस हुआ। अब दिल में सोचा कि बासठ साल की उमर हो गई। अभी तक मुझे कोई गुरु नहीं मिला। हे गंगा माई ! तू गुरु मिला दे। हे गंगा माई ! अब तो तू ही मुझे गुरु मिला दे। इसी चिन्ता में रात भर नींद नहीं आई। जब सुबह हुई तरे बीबी अमरो ( गुरु अंगद साहिब की लड़की ) ने, जोकि आपके भाई के बेटे से ब्याही थी, गुरुवाणी पढ़ती थी। अब ज्यों-ज्यों वह पढ़ती गई, अमरदास के दिल को वाणी बेधती गई। आप प्यार के साथ अन्दर जाकर सुनते रहे।
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वह बेटे की बहू लगती थी, अर्थात भाई के बेटे की बहू थी। पूछा कि बेटी! यह किसकी वाणी है ? उसने कहा, ’’जी, यह गुरु नानक साहिब की वाणी है जिनकी गददी पर मेरे पिताजी बैठे हुए हैं। दिल में प्यार था, तड़प थी; कहने लगे मुझे भी वहाँ ले चल। उसने कहा, जब तक मेरे पिताजी मुझे आप न बुलायें, मैं वहाँ नहीं जा सकती। उनका यही हुक्म है। अमरदास जी ने कहा, ’’ तू मुझे जरूर लेकर चल। इसमें अगर कोई पाप लगे, तो मुझे लग जाये। अगर तेरे पिताजी नाराज हों तो मेरी जिम्मेदारी है।
आखिर वह उन्हें अपने साथ गुरु अंगद साहिब के पास ले गई। जब गुरु साहिब के दरबार के नजदीक पहुँची तो बोली कि आप बाहर खड़े रहो, मैं अन्दर जाकर अर्ज करती हूँ। जब अन्दर गई तो गुरु अंगद साहिब ने कहा, बेटी! जिसको अपने साथ लाई हो, उसको अन्दर ले आओ। आगे किस प्रकार गुरु अंगददेव जी ने गुरु अमरदास को रूहानी दौलत से भरपूर कर दिया और उन्हें अपना रूप बना लिया, वह अलग प्रसंग है।
जिनको मनुष्य-जन्म पाकर गुरु मिल गया, उनका जन्म सफल हो गया। लेकिन अफसोस है उन पर जिनकी सारी उमर गुजर गई दुनिया के काम करते हुए, लेकिन अब तक रास्ता नहीं मिला।
* राधा स्वामी जी *
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