* महारानी द्रौपदी और महात्मा सुपच *
जब महाभारत की लड़ाई खत्म हुई तो भगवान कृष्ण ने पांड़वों को बुलाकर कहा कि अश्वमेध यज्ञ कराओ, प्रायश्चित करो, नहीं तो नरकों में जाओगे। लेकिन तुम्हारा यज्ञ तब संपूर्ण होगा जब आकाश में घंटा बजेगा। पांड़वो ने यज्ञ किया, सारे भारतवर्ष के साधु-महात्मा बुलाये। सब खाना खा चुके पर घंटा न बजा। सोचा कि भगवान कृष्ण को नहीं खिलाया। भगवान कृष्ण ने भी भोजन किया, लेकिन फिर भी घंटा नहीं बजा। आखिर अर्ज की कि भगवन! आप योगदृष्टि से देखो, कोई रह तो नहीं गया। भगवान ने कहा कि एक निम्न जाति का साधु है, उसका नाम सुपच है। वह भजन में मस्त, जंगल में रहता है और पत्ते खाकर गुजारा करता है, कहीं जाता नहीं। उसको बुलाओ और भोजन खिलाओ, तब आपका यज्ञ संपूर्ण होगा।
क्योंकि पांड़वो में राजा होने का घमंड था, इसलिए उन्होंने खुद जाने के बजाय अपने एक दूत को भेज दिया। उन्होंने सोचा कि जैसे मक्खियाँ गुड़ पर मँडराने लगती हैं, ऐसे ही जब उस महात्मा को इस यज्ञ के बारे में पता चलेगा तो वह खुद ही भोजन करने के लिए आ जायेगा। पर महात्मा ने वहाँ जाने से इनकार कर दिया।
अब पांडव खुद उस महात्मा को लेने के लिए गये और कहा कि महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है, आप चलकर उसे संपूर्ण करें। महात्मा ने कहा कि मैं उसके घर जाता हूँ जो मुझे एक सौ एक अश्वमेध यज्ञों का फल दे। वे कहने लगे कि हमारा तो एक यज्ञ संपूर्ण नहीं हो रहा और तुम एक सौ एक यज्ञों का फल माँग रहे हो! वह बोला कि मेरी तो शर्त यही है। पाँचों पांडव बारी-बारी से गये लेकिन महात्मा ने अपनी शर्त न बदली। आखिरकार हारकर वे वापस आ गये। पांडव निराश होकर बैठे थे कि द्रौपदी ने कहा, आप उदास क्यों बैठे हैं ? मैं सुपच की लाती हूँ, यह भी कोई बड़ी बात है! द्रौपदी उठी, नंगे पाँव पानी लायी, अपने हाथों से प्यार के साथ खाना बनाया। फिर नंगे पाँव चलकर महात्मा के पास गयी और अर्ज की, महात्मा जी! हमारे यहाँ यज्ञ है। आप चलकर उसे संपूर्ण करें। महात्मा ने कहा कि तुम्हें पांडवों ने बताया होगा कि मेरा क्या प्रण है ? कहने लगी महाराज, मुझे पता है। महात्मा ने कहा, लाओ फिर एक सौ एक अश्वमेध यज्ञों का फल। द्रौपदी ने कहा, महात्मा जी! मैंने आप जैसे संतों से सुना है कि जब संतों की ओर जाएँ तो एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। इसलिए मैं जितने कदम आपके पास चलकर आयी हूँ, उनमें से एक सौ एक अश्वमेध यज्ञों का फल आप ले लें और बाकी मुझे दे दें। यह सुनकर महात्मा सुपच चुपचाप द्रौपदी के साथ चल पड़ा।
जब खाना परोसा तो महात्मा ने सब प्रकार के व्यंजनो को एक साथ मिला लिया। द्रौपदी खाना बनाने में सब राजकुमारियों और रानियों में अव्वल नंबर पर थी। दिल में कहने लगी कि आखिर अपनी औकात दिखा दी। इसे खाने की क्या कद्र! अगर अलग-अलग खाता तो इसको पता चल जाता कि द्रौपदी के खाने में क्या स्वाद है। जब महात्मा खा चुका तब भी घंटा न बजा। पांडव बड़े हैरान हुए। आखिर कृष्ण जी से पूछा कि महाराज! अब क्या कसर है ? भगवान ने कहा कि द्रौपदी से पूछो, उसके मन में कसर है।
दौपदी को पता नहीं था कि सुपच ने सारे भोजन को मिलाकर भोजन के स्वाद को जान-बूझकर खतम किया है। महात्मा या तो खाना खाते समय सारे खाने को मिलाकर उसका स्वाद नष्ट कर देते हैं या अपनी सुरत को खाना खाने से पहले अंदर ऊपर ले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि खाना चाहे खट्टा हो या नमकीन, मीठा हो या फीका, रूखा हो या सूखा, चाहे कैसा भी हो, उनको स्वाद का पता नहीं चलता। जब द्रौपदी ने क्षमा माँगकर अपना मन शुद्ध कर लिया तो घंटा बजा।
सो मालिक को केवल भक्ति और नम्रता ही प्यारी है। उसके दरबार में जाति-पाँति की नहीं, प्रेम और भक्ति की कद्र है।