* कलियुगी शिष्य *
एक शिष्य अपने गुरु के साथ जंगल में रहता था। एक बार सर्दियों की अँधेरी रात में ज़ोर की वर्षा होने लगी और झोंपड़ी की छत से पानी टपकने लगा। गुरु ने शिष्य से कहा, ’बेटा! छत पर चढ़कर देख कि छत में से पानी कहाँ से टपक रहा है और उसे ठीक करने का उपाय कर।’
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शिष्य गुरु का कहा मानना चाहता था पर उसने मन में सोचा कि बाहर अँधेरा और ठंड है, अगर मैं बाहर गया तो भीग जाऊगाँ। मैं फिसलकर गिर गया तो मेरी टाँग टूट जायेगी। इसलिए मुझे बाहर जाने का कोई फ़ायदा नहीं। उसने अपने गुरु से कहा, ’गुरुदेव ! अगर मैं ऊपर छत पर गया तो मेरे पैर छत पर होगें और आप छत के नीचे। मैं ऐसी बेअदबी कैसे कर सकता हूँ।’ गुरु ने कोई उत्तर न दिया और चुनचाप ख़ुद ही छत पर चढ़कर छत को ठीक कर लिया।
जब वह छत से नीचे आये, उन्होंने देखा कि जलाने के लिए लकड़ियाँ ख़त्म हो गयी हैं। इसलिए उन्होंने शिष्य से कहा, ’बेटा बाहर जंगल में जाकर जलाने के लिए कुछ लकड़ियाँ ले आओ।’ शिष्य गुरु का कहना मानना चाहता था पर उसे जंगल से डर लगता था। वह सोचने लगा कि बाहर अँधेरा है, जंगली जानवर हैं। मुझे चोट लग सकती है। जानवर मुझे जिंदा ही खा जायेंगे। उसने फ़ौरन मन में बहाना ढूँढ़ना शुरू कर दिया और बोला, ’गुरुदेव ! अगर मैं जंगल की ओर गया तो मेरी पीठ आपकी ओर हो जायेगी। मैं आपकी बेअदबी कैसे कर सकता हूँ!’
इस बार भी गुरु ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप ख़ुद ही जंगल में जाकर जलाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी कर लाये।
गुरु ने जंगल से वापस आकर भोजन तैयार किया। जब भोजन तैयार हो गया तो शिष्य से कहा, ’बेटा खाना तैयार है। आकर खा ले।’ यह सुनकर शिष्य दौड़ता हुआ आया और अपने गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। वह बहुत प्रेम पूर्वक कहने लगा, ’ गुरु जी, गुरु जी। मुझे क्षमा कर दें। मैैंने दो बार आपकी हुक्मउदूली की है। इस बार मैं आपका हुक्म ज़रूर मानूँगा।’
पर गुरु तो गुरु ही होते हैं।