{ एक कान से सुनना, दूसरे से निकाल देना }
दिल्ली में एक महाजन था। उसे साधु-संतों के सत्संग सुनने का बहुत शौक था। वह रोज सत्संग में जाता और अपने लड़के को दुकान पर छोड़ जाता। एक दिन उसके लड़के ने कहा, ’पिता जी, आप बिना नागा सत्संग सुनने जाते हो, आपको उससे अवश्य आनंद आता होगा। एक दिन मुझे भी सत्संग में जाने की आज्ञा देना और आप दुकान पर रहना। मेरा मन भी करता है कि देखूँ सत्संग कैसा होता है?
पिता ने कहा, क्यों नहीं, तुम भी जरूर जाना। तुम्हें भी इसमें आनंद आयेगा।
जब लड़का सत्संग में गया तो वहाँ महात्मा ने वचन कहे, सबकी सेवा करनी चाहिए, कभी किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। वह सत्संग सुनकर दुकान पर आ गया। बाजार में गायें फिरती रहती थीं। एक गाय आकर आटा खाने लगी। वह चुपचाप बैठा रहा। इतने में उसका पिता आ गया। उसने देखा तो गुस्से से बोला, ’ओ अंधे ! गाय आटा खा रही है। पुत्र ने जवाब दिया, ’तो क्या हो गया ! अगर दो-चार सेर खा जायेगी तो क्या घट जायेगा। हमारे पास बहुत है, कितना खा जायेगी? हमारे कितने मकान हैं जिनका हमें किराया आता है और जो रकम हमने लोगों को उधार दे रखी है, उस से कितना ब्याज आता है। अगर गाय थोड़ा-सा आटा खा जायेगी तो क्या हुआ? महाजन ने कहा, ’आज तू यह कहाँ से सीखकर आया है? तुम अच्छी तहर समझ लो कि मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं है।
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लड़के ने झट कहा, ’यह सत्संग में सुना था कि सबकी सेवा करनी चाहिए, किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। यह सुनकर बाप ने आग बबूला होकर कहा, ’दोबारा कभी सत्संग में मत जाना। देख, मैं तीस साल से सत्संग सुनता आया हूँ पर मुझे सत्संग का एक भी शब्द याद नहीं। तूने ऐसा क्यों नहीं किया? यह बात याद रखना कि सत्संग सुनने के बाद वही पल्ला झाड़कर आ जाना। मैं एक कान से सुनता हूँ और दूसरे से निकाल देता हूँ। ऐसी बातें पल्ले नहीं बाँधा करते। मेरी ओर देख। मुझे कितना समय हो गया है सत्संग में जाते, मैं हमेशा पल्ला झाड़कर चला आता हूँ।
इसी तरह हम भी सत्संग में जाते है मोज मसती करते है और सत्संग सुनते हैं लेकिन अमल नहीं करते।