{ बबूल से मनुष्य-जन्म }
एक समय की बात है, एक अभ्यासी सत्संगी ने एक पेड़ की ओर इशारा करते हुए बड़े महाराज जी से पूछा, ’अच्छे कर्म करने से क्या यह पेड़ भी मनुष्य-देह प्राप्त कर सकता है ?’
महाराज जी ने उत्तर दिया, ’यह ठीक है कि चैरासी लाख योनियों का सारा चक्कर पूरा करके जीव को मनुष्य-देह मिलती है, परन्तु सतगुरु के पास नाम की अमोलक शक्ति होती है। अगर वे किसी पेड़ का फल खा लें, उसकी छाया में बैठ जायें या किसी जानवर, जैसे कि घोड़े की सवारी कर लें, तो उसे मनुष्य-देह देने की दया कर देते हैं।’
बड़े महाराज जी फिर बताया कि चालीस वर्ष पहले, एक बाप-बेटा, स्वामी जी महाराज के शिष्य थे। उन दिनों प्लेग की बीमारी फैल जाने से लड़के की मृत्यु हो गयी। जब पुत्र मृत्यु के क़रीब था तो पिता रोने लग गया।
पुत्र ने पूछा, ’पिता जी, आप रोते क्यों हैं ?
पिता ने उत्तर दिया, ’तुम मेरे इकलौते बेटे हो। तुम मर रहे हो इसलिए रो रहा हूँ।’ पुत्र ने शांति से उत्तर दिया, ’पिता जी, मैं मर नहीं रहा बल्कि जीने जा रहा हूँ। मेरे अन्दर का परदा उठ गया है और मुझे अपने पिछले जन्म के बारे में पता चल गया है। मैं उस समय बबूल का पेड़ था। किसी सत्संगी ने मेरी टहनी की दातुन बनाकर स्वामी जी महाराज की सेवा में अर्पण कर दी। उसके फलस्वरूप् मुझे यह मनुष्य-देह मिली परन्तु मेरी बुद्धि जड़ रही। अब मेरा किसी अच्छे परिवार में जन्म होगा और मैं परमार्थ का अभ्यास करूँगा।
बड़े महाराज जी ने बताया कि यह सच्ची घटना है परन्तु ऐसी घटनाएँ बहुत कम होती हैं।
उसी अभ्यासी सत्संगी ने दोबारा पूछा, ’अच्छा ! पहले रूह वृक्ष में आती है, फिर कीड़े में और फिर ?’
बड़े महाराज जी ने उत्तर दिया, ’फिर पक्षियों में, इसके बाद पशुओं में और सबसे आख़िर में मनुष्य-जन्म मिलता है। नियम तो यही है कि सारा चैरासी का चक्कर भोगकर करोड़ों वर्षों बाद मनुष्य-जन्म में आये।’ उन्होंने बताया कि वह उन भाग्यशाली जीवों की बात कर रहे हैं जिनका संतो के साथ संबंध बन जाता है; वे किसी भी योनि में हों, उनको मनुष्य-जन्म मिल सकता है। चाहे उनका कर्मों का बोझ अभी भारी क्यों न हो, मगर आसानी तो हो ही जाती है।
मुक्ति नाम में है। बिना नाम के जीव ऊपर सचखंड में नहीं जा सकता। नाम की कमाई सिर्फ़ मनुष्य शरीर में ही हो सकती है। अगर आप कहें कि पेड़ो, पक्षियों, पशुओं को ले जायें तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि बिना मनुष्य शरीर के नाम नहीं जप सकते और बिना नाम की कमाई किये आंतरिक ज्ञान नहीं हो सकता और बिना आंतरिक ज्ञान या अनुभव के मुक्ति नहीं।
महाराज जी के कहने का भाव यह है कि केवल मनुष्य शरीर में ही नाम की कमाई की जा सकती है। किसी ओर योनि में नहीं।