*भाई बेला*
गुरु गोबिन्दसिंह जी के सत्संग में एक सीधा-सादा जाट चला आया और गुरु साहिब से कहने लगा कि मुझे कोई सेवा बख़्शो। उनके जमाने में मुगलों से लड़ाइयाँ होती रहती थीं। कहने लगे, तुझे बन्दूक चलानी आती है ?” कहता है, ” नहीें।“ “ क्या तुझे तीर-कमान चलाना आता है ?“ कहता है, “नहीं !“गुरु साहिब ने कहा, “फिर तू क्या करेगा ?” कहने लगा, “ मैं घोड़ो की सेवा करूँगा।“ उन्होंने घोड़ो की सेवा पर उसे लगा दिया। बड़े प्रेम से सेवा करता रहा। लीद वगैरा बाहर फेंक आये, अच्छा घास डाले, हर प्रकार की सफाई रखे। दो-तीन महीने में घोड़े बड़े तगड़े हो गये। एक दिन गुरु साहिब ने आकर देखा तो घोड़े बड़े तगड़े थे। पूछा कि तेरा क्या नाम है ? “ कहता है, ‘ बेला‘। कहने लगे “बेलया! कुछ पढ़ा हुआ भी है ?“ कहता है कि कुछ नहीं। तब गुरु साहिब ने कहा, “अच्छा, तुझे हम पढ़ा देंगे। पढ़ा करो और साथ ही सेवा किया करो।” गुरु साहिब रोज एक तुक बता देते, वह याद करता रहता। एक दिन गुरु साहिब कहीं जा रहे थे। बेला दौड़ कर आया और बोला कि मुझे तुक दे जाओ। उन्होंने कहा कि वक्त नहीं देखता कि मैं कहीं जा रहा हूँ और फरमाया:
वहा भाई बेला, न पहचाने वक्त न पहचाने वेला।
बेले ने समझा कि मुझे तुक बता गये हैं। सारा दिन प्रेम के साथ उसको रटता रहा, “वहा भाई बेला, न पहचाने वक्त न पहचाने वेला।“
अब ग्रन्थी देख कर मन ही मन में हँसने लगे कि यह बेवकूफ क्या बोलता फिरता है। जब शाम को सत्संग लगस तो ग्रंथियों ने मजाक के तौर पर गुरु साहिब से पूछा कि क्या आज कोई तुक बेले को बता गये थे ? गुरु साहिब कहने लगे “ कोई नहीं।“ उन्होंने कहा कि वह तो सारा दिन एक ही तुक रटता रहा है,“ वाह भाई बेला न पहचाने वक्त न पहचाने वेला“। हँस कर गुरु साहिब ने कहा, “जिसने वेला वक्त नहीं पहचाना, वह समझ गया, वह पार हो गया।“
अब सन्तों की मौज होती है, दया होती है। गुरु साहिब की दया थी, बेला की सुरत चढ़ गई। सारा दिन प्रेम से तुक रटता रहा था। अब सुरत अन्दर गई तो नाम के रंग में रगं गई। बाहर आई तो भी गुरु के खयााल और नाम के प्यार में लीन थी। ग्रन्थी क्रोध में आ गये कि इस दरबार में कोई न्याय नहीं है। हम कब से सेवा करते आये हैं और कुछ प्राप्त न हुआ। यह कल आया और नाम के रंग मे रंग गया। उस जमाने में ग्रन्थी पुराणों का अनुवाद कर रहे थे। कहने लगे, “पुराणों का अनुवाद किया, सेवा की, लेकिऩ़ ………….।“ क्रोध में भर गये कि यहाँ रहना ही नहीं चाहिये। गुरु साहिब ने देखा कि वे क्रोध में आ गये हैं। समझाने के लिये कुछ भाँग दे दी कि इसको प्रेम के साथ पीसो। नियम है कि भाँग को जितना ज्यादा पीसा जाता है उतना ही ज्यादा नशा देती है। खूब पीसा। भाँग का घड़ा तैयार हो गया जो गुरु साहिब ने हुक्म दिया कि भाँग की कुल्ली कर-कर छोड़ते जाओ। जब सारा घड़ा खत्म हो गया तो पूछा कि क्या नशा आया ? उन्होंने जवाब दिया कि कुछ नहीं आया । अगर पीते, अन्दर जाती तब नशा आता। गुरु साहिब ने कहा, “बेला वाले सवाल का जवाब यही है। उसके अन्दर नाम का रंग चढ़ गया है।
“ मतलब तो यह है कि जब तक अन्दर प्यार न हो, मुक्ति नहीं मिलती, न परदा खुलता है और न शान्ति आती हैं।