{ फकीर और साहूकार }
एक फकीर का नियम था कि वह जिस गाँव में जाता था, रोटी ऐसे व्यक्ति के घर खाता था जिसकी कमाई हक की होती थी। वह पहले पूछताछ की लेता था। एक दिन इत्तफाक से वह एक जंगल में जा रहा था। वहाँ उसे एक आदमी मिला। फकीर ने उससे पूछा कि पासवाले गाँव में क्या कोई हक की कमाई करनेवाला व्यक्ति है? उसने कहा कि अमुक साहूकार है। पूछा, ’उसके पास कितना रुपया है, कहने लगा कि एक लाख के करीब। उसके कितने पुत्र हैं,’ ’चार।’
ये पूछकर वह उस गाँव में गया।
साहूकार के पास पहुँचा और कहा, लाला जी, रोटी खानी है।’ साहूकार ने कहा, ’आओ महात्मा जी, बड़ी खुशी से खाओ। फिर फकीर ने कहा कि केवल दो बातें आपसे पूछनी हैं। साहूकार ने कहा, ’हुुक्म करो।’ महात्मा ने पूछा तुम्हारे पास कितना रुपया है? साहूकार ने जवाब दिया कि पचास हजार। फिर पूछा कि तुम्हारे कितने पुत्र हैं? साहूकार ने जवाब दिया कि एक। महात्मा उठकर चल पड़ा।
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यह सोचते हुए कि साहूकार झूठ बोल रहा है, फकीर उसके घर से जाने लगा। साहूकार को बड़ी हैरानी हुई। साहूकार ने हाथ जोड़कर अर्ज की, ’महात्मा जी, नाराज हो गये, चल क्यों पड़े? महात्मा क्रोधित होकर बोला कि मैंने तो तुमको धर्मात्मा समझा था। हक की कमाई वाला समझा था। तू तो झूठ की गठरी निकला। तू बता ! मैं तेरे पुत्र ले जाता कि तेरी कमाई बाँट लेता? साहूकार ने उत्तर दिया, ’महात्मा जी, पहले मेरी अर्ज सुल लो, रोटी चाहे खाआ, चाहे खाओ। मेरा एक बेटा परमार्थ में मेरी मदद करता है, बाकी सब शराबी-कबाबी हैं। वे अपना पिछला कर्ज वसूल करने आये हैं। और मैंने आज तक पचास हजार रुपया परमार्थ में लगाया है। बाकी का पता नहीं चोरों ने ले जाना है कि ठगों ने। इसलिए मैंने कहा था कि मेरा एक पुत्र है और पचास हजार रुपया है। फकीर ने दयालु होकर मुस्कराते हुए कहा, ’बेटा! माफ करना। मुझे अब पता चला कि आपने सच बोला था। मैं बड़ी प्रसन्न्ता से आपका भोजन स्वीकार करूँगा।
मतलब यह है कि जो धन और संबंधी परमार्थ में मदद दें, वे ही असल में अपने हैं।