{ गुरु का चोर }
भाई गुरुदास जी गुरु अर्जुन देव जी के मामा थे। एक बार भाई गुरदास ने ये पंक्तियाँ लिखीं और पढ़कर गुरु हरगोबिन्द साहिब को सुनायीं।
*अगर माँ चरित्रहीन हो तो पुत्र को विचार नहीं करना चाहिए। न माँ को सजा देनी चाहिए और न ही उसका साथ छोड़ना चाहिए।
*अगर गाय हीरा खा जाये तो उसका पेट नहीं फाड़ना चाहिए। अगर पति बाहर पराई स्त्रियों के पास जाता है तो उसकी पत्नी को उसकी नकल नहीं करनी चाहिए, बल्कि पतिव्रत रखना चाहिए।
*राजा चमड़े के सिक्के चलाये, ब्राह्यणी शराब पिये तो लोग मजबूर हैं।
*अगर गुरु कौतुक दिखाये तो शिष्य को डोलना नहीं चाहिए। इस प्रकार इन सब उदाहरणों के द्वारा आप शिष्य को अडोल रहने की हिदायत दे रहे थें।
गुरु हरगोबिन्द साहिब ने सुना तो सोचा कि इन्होंने बानी तो बहुत ऊँची कह दी है, लेकिन इसमें अहंकार की बू है, इन्हें आजमाना चाहिए। यह सोचकर फरमाया, मामा जी! काबुल से घोड़े खरीदने हैं, आप जाकर खरीद लाओ। भाई गुरुदास जी ने कहा, बहुत अच्छा जी। उन दिनों में कागज के नोट नहीं हुआ करते थे, अशर्फियाँ होती थीं। गुरु साहिब ने अशर्फियों की थैलियों का मुँह बंद किया और संदूकों में डालकर खच्चरों पर लाद लीं। उन दिनों रेलगाड़ियाँ नहीं होती थीं। भाई साहिब बड़े विद्वान थे। कुछ शिष्यों को साथ लेकर गाँव-गाँव में सत्संग करते हुए काबूल पहुँचे।
काबुल में भाई साहिब घोड़ो के पठान सौदागरों से मिले। उनके साथ सौदा तय किया और कुछ शिष्य घोड़े लेकर लाहौर गुरु जी के पास चले गये। अब रकम चुकाने के लिए तंबू में गये और संदूक खोलकर थैलियों के मुँह खोले तो अशर्फियों की जगह कंकड़ और पत्थर दिखायी दिये। बहुत हैरान हुए, सोचा कि पठानों के साथ सौदा किया है, वे बाहर खड़े हैं, घोड़े भेज चुका हूँ, अगर रकम न दी पेट फाड़ देंगे। बहुत आँखें मल-मलकर देखा, मगर उन्हें तो कंकड़ और पत्थर ही दिखायी दिये। आखिर पिछली तरफ से तंबू फाड़कर बाहर निकल कर भाग गये। वह इतना डर गये कि सहायता के लिए गुरु के आगे विनती करना भी भूल गये। न लाहौर ठहरे, न अमृतसर, सीधे काशी जा पहुँचे। जब शिष्यों को इंतजार करते देर हो गयी और भाई साहब बाहर न निकले तो वे खुद तंबू के अंदर गये। वहँा देखा कि संदूक खुला है, थैलियों के मुहँ भी खुले है और अशर्फियाँ पड़ी हुई हैं, लेकिन भाई साहिब गायब हैं और तंबू एक ओर से फटा हुआ हैं। उन्होंने पठानों को अशर्फियाँ देकर हिसाब चुका दिया और गुरु साहिब के पास आकर सारी बात सुना दी।
अब महात्माओं का काम तो सत्संग करना ही है। सो भाई गुरदास जी ने काशी में जाकर सत्संग करना शुरू कर दिया। सैकड़ों लोग उनके सत्संग में आने लगे। जब लोगों ने सत्संग सुना तो कहने लगे कि यह बड़े महात्मा हैं। काशी का राजा भी आपके सत्संग में आने लगा और कुछ ही दिनों में आपका श्रद्धालु बन गया।
कुछ महीनों के बाद गुरु जी को भाई गुरदास का पता चल गया, उन्होंने काशी के राजा को चिटठी लिखी कि आपकी सभा में हमारा एक चोर है, उसके हाथ-पाँव बाँधकर हमारे पास भिजवा दो। चोर को ढूँढने की जरूरत नहीं, सिर्फ सार्वजनिक स्थानों या सत्संग में चिटठी पढ़कर सुना देना, जो चोर होगा वह आप ही बोल पड़ेगा।
अब सत्संग में सारी संगत बैठी हुई थी और भाई गुरदास जी सत्संग कर रहे थे, राजा ने वहाँ चिटठी पढ़कर सुनायी कि हमारी सभा में गुरु हरगोबिन्द साहिब का एक चोर है, वह आप ही बोल पड़ेगा। यह सुनते ही भाई जी उठकर बोले कि मैं गुरु साहिब का चोर हूँ। मेरी मुश्कें बाँधकर गुरु जी के पास ले चलो। सत्संग में सन्नाटा छा गया। लोग कहने लगे कि आप चोर नहीं, आप तो बड़े महात्मा हैं, चोर कोई और होगा। अब मुश्कें कोन बाँधे ! आपने अपनी पगड़ी के साथ खुद ही अपनी मुश्कें बाँध लीं। कहाँ काशी और कहाँ अमृतसर ! उसी हालत में अमृतसर आये। इसका नाम प्रेम है। गुरु साहिब ने कहा, मामा जी ! फिर वही वार सुनाओ। अब वह वार कौन सुनाये ! अनुभव हो चुका था। पाँवों पर गिर पड़े और यह वार कहीः
*अगर माँ ही बेटे को जहर दे तो उसको कौन बचा सकता है? अगर पहरेदार ही घर में चोरी करता है, तो फिर रक्षा कौन कर सकता है? अगर रास्ता बताने वाला ही जान-बूझकर उलटे रास्ते पर चलने लगे तो पीछे चलनेवाले किसके आगे फरियाद करें? अगर बाड़ ही खेत को खाना शुरू कर दे तो खेत की रखवाली कौन करेगा? इसी प्रकार अगर गुरु स्वाँग करे या शिष्य को भरमाये तो बेचारे शिष्य की क्या ताकत है कि वह स्थिर रह सके।
मतलब तो यह है कि जब भूचाल आता है तो बड़े-बडे़ पहाड़ हिल जाते हैं, वृक्ष हिल जाते हैं, मकान गिर जाते हैं। सो अगर गुरु स्वाँग करे जो वह आप ही शिष्य को स्थिर रख सकता है और कोई नहीं।