* हीरे का मोल *
मेवाड़ की रानी मीराबाई पंद्रहवीं शताब्दी के मशहूर संत गुरु रविदास जी की शिष्या थीं। उनकी सखियाँ-सहेलियाँ गुरु रविदास जी पर नाक-मुहँ चढ़़ाती थीं। वे मीराबाई पर ताने देती थीं कि आप खुद शाही महलों में रहती हैं पर आपके गुरु जूते गाँठकर बड़ी मुश्किल से गुजारा करते हैं।
मीराबाई को इस बात का बहुत दुःख हुआ। उनकी हृदय में सतगुरु रविदास जी के लिए सच्चा प्रेम और आदर था। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें। अंत में एक दिन उन्होंनें हीरों के डिब्बे में से एक क़ीमती हीरा निकाला ताकि गुरु रविदास जी को दे सकें, जिसे बेचकर उन्हें काफी धन मिल सकता था। वे हीरा लेकर गुरु रविदास जी के पास चली गयीं। उन्होंनें माथा टेककर और हाथ जोड़कर अर्ज़ की, ’गुरु जी, मुझे आपकी ग़रीबी देखकर बहुत दुःख होता है और लोग मुझे ताने देते हैं कि तेरा गुरु इतना गरीब है। आप यह हीरा स्वीकार कर लें और इसको बेचकर सुंदर-सा घर बना लें ताकि आप सुख की ज़िंदगी गुज़ार सकें।’
गुरु रविदास जी उसी तरह जूते गाँठते हुए बोले, ‘बेटी, मुझे जो कुछ मिला है, कुंड के पानी और जूते गाँठने से मिला है। अगर तुझे लोकलाज का डर है तो घर में बैठकर ही भजन-सुमिरन कर लिया कर, मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं। यह हीरा मेरे किसी काम का नहीं। चाहे लोग मुझे ग़रीब समझते हैं पर मुझे गरीबी में ही आनंद है। मुझे दुनिया की किसी नाशवान वस्तु की जरूरत नहीं।’
मीराबाई हर हाल में गुरु रविदास जी को हीरा देना चहाती थीं। वह बहुत देर तक मिन्नात करती रहीं, पर गुरु जी ने एक न सुनी। अंत में निराश होकर मीराबाई कहने लगी, ‘गुरु जी,मैं हीरा आपकी कुटिया की छत में छोड़े जाती हूँ। जब जरूर पड़े, आप निकाल लेना ताकि आपका जीवन सुखमय हो जाये।’
यह कहकर मीराबाई अपने महल में वापस आ गयीं। इस बात को कई महीने बीत गये। जब वह फिर गुरु रविदास जी के दर्शनों को गयीं तो यह देखकर हैरान रह गयी कि वह अब भी गरीबी की हालत में जूते गाँठ रहे थे। उन्होंनें आदर पूर्वक माथा टेककर कहा, ‘गुरु जी, मैं बड़े प्यार और आदर से आपके लिए एक हीरा छोड़ गयी थी, आपने उसका फ़ायदा क्यों नहीं उठाया ?
गुरु रविदास जी बोले, ‘बेटी मुझे हीरो का क्या करना हैं ? मुझे परमात्मा ने नाम का वह अथाह धन बख़्शा है जिसका हिसाब लगा सकना असंभव है। तुम वापस जाती हुई हीरा साथ ले जाना।’
मीरा ने छत टटोली तो हीरा वहीं पड़ा मिला जहाँ वह रखकर गयी थीं। गुरु रविदास जी ने हीरे की ओर ध्यान ही नहीं दिया था। यह देखकर मीराबाई को अपने गुरु की बड़ाई का सच्चा ज्ञान हो गया और उन्हें एहसास हो गया कि उनके सतगुरु किस अपार रूहानी दौलत के मालिक हैं। वह प्रेम, श्रद्धा और नम्रता के साथ सतगुरु के चरणों में गिर पड़ी।