*प्रभु की मर्ज़ी *
एक महात्मा थे। जीवन भर उन्होंने भजन ही किया था। उनकी कुटिया के सामने एक तालाब था। जब उनका शरीर छूटने का समय आया तो देखा कि एक बगुला मछली मार रहा है। उन्होंने बगुले को उड़ा दिया। इधर उनका शरीर छूटा तो नरक गये। उनके चेले को स्वप्न में दिखायी पड़ा:- वे कह रहे थे- “बेटा! हमने जीवन भर कोई पाप नहीं किया, केवल बगुला उड़ा देने मात्र से नरक जाना पड़ा। तुम सावधान रहना।”
जब शिष्य का भी शरीर छूटने का समय आया तो वही दृश्य पुनः आया। बगुला मछली पकड़ रहा था। गुरु का निर्देश मानकर उसने बगुले को नहीं उड़ाया। मरने पर वह भी नरक जाने लगा तो गुरुभाई को आकाशवाणी हुई कि गुरुजी ने बगुला उड़ाया था इसलिए नरक गये। हमने नहीं उड़ाया इसलिए नरक में जा रहे हैं। तुम बचाना !!
गुरुभाई का शरीर छूटने का समय आया तो संयोग से पुनः बगुला मछली मारता दिखाई पड़ा। गुरुभाई ने भगवान् को प्रणाम किया कि भगवन् आप ही मछली में हो और आप ही बगुले में भी। हमें नहीं मालूम कि क्या झूठ है ? क्या सच है ? क्या पाप है, क्या पुण्य है ? आप अपनी व्यवस्था देखें। मुझे तो आपके चिन्तन की डोरी (भजन सुमिरन) से मतलब है। वह शरीर छूटने पर प्रभु के धाम गया।
नारद जी ने भगवान से पूछा, “भगवन् ! अन्ततः वे नरक क्यों गये ? महात्मा जी ने बगुला उड़ाकर कोई पाप तो नहीं किया ?” उन्होंने कहा, “नारद! उस दिन बगुले का भोजन वही था। उन्होंने उसे उड़ा दिया। भूख से छटपटाकर बगुला मर गया अतः पाप हुआ, इसलिए नरक गये।” नारद ने पूछा, “दूसरे ने तो नहीं उड़ाया, वह क्यों नरक गया ?” बोले, _”उस दिन बगुले का पेट भरा हुआ था। वह विनोदवश मछली पकड़ रहा था, उसे उड़ा देना चाहिए था। शिष्य से भूल हुई, इसी पाप से वह नरक गया।” नारद ने पूछा, “और तीसरा ?” भगवान् ने कहा, “तीसरा अपने भजन सुमिरन में लगा रहा और सारी जिम्मेदारी हमको सौंप दी। जैसी होनी थी, वह हुई। किन्तु मुझ से सम्बन्ध जोड़े रहने के कारण, मेरे ही चिन्तन के प्रभाव से वह मेरे धाम को प्राप्त हुआ।।”
अत: पाप-पुण्य की चिन्ता में समय को न गँवाकर जो निरन्तर चिन्तन(भजन सुमिरन) में लगा रहता है, वह पा जाता है। जितने समय हमारा मन प्रभु के नाम, रुप, गुण, धाम और संतों की संगत में रहता है केवल उतने समय ही हम पापमुक्त रहते हैं, शेष सारे समय पाप ही पाप करते रहते हैं।
संत महात्मा समझाते हैं कि:- “भजन-सिमरन के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है वह इसी लोक में बाँधकर रखने वाला है, जिसमें खाना-पीना सभी कुछ आ जाता है। पाप, पुण्य दोनों बन्धनकारी हैं, इन दोनों को छोड़कर जो भक्ति वाला कर्म है अर्थात् मन को निरंतर भगवान के श्री चरणों में लगा कर रखें तो पाप, पुण्य दोनों भगवान को अर्पित हो जाएंगे। भगवान केवल मन की क्रिया ही नोट करेंगे, इसका मन तो मुझ में था, इसने कुछ किया ही नहीं। यह भक्ति ही भव बंधन काटने वाली है।
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