* सुखदेव और गुरु *
सुखदेव ऋषि वेदव्यास जी का पुत्र था। चैदह कला सम्पूर्ण था, गर्भ से ही ज्ञान था। जन्म नहीं लेता था, कहता था कि अगर जन्म लिया तो माया भुला देगी। आखिर उसके लिये भगवान ने पाँच पल के लिये माया की गति बन्द की कि सुखदेव जन्म ले ले। खैर अभ्यास करता था, बड़ा कमाई वाला था। जन्म लेते ही जंगल में चला गया।
एक दिन खयाल आया कि जिसका रोज अभ्यास करते हैं उसका दर्शन भी करें, अन्दर विष्णु पुरी में चलें। सहóदल कमल तक सारी पुरियाँ खत्म हो जाती हैं। जब विष्णु पुरी में गया तो धक्के पड़े। जो द्वारपाल थे, उन्होंने कहा कि तू निगुरा है। इसलिये विष्णु पुरी में नहीं आ सकता। विष्णु ने कहा कि हे सुखदेव! तू निगुरा है। मेरे दरबार में निगुरे को जगह नहीं। अगर तुझे मुझसे मिलना है तो जाकर गुरु धारण कर।
आखिर सुखदेव अभ्यास से उठ कर, बाहर बाप के पास गया। कहा कि आज मुझे विष्णु पुरी से धक्के मिले हैं। मुझमें अहंकार था कि मैं ऋषि का पुत्र हूँ, परन्तु मुझे धक्के मिले। बोला कि अब मुझे गुरु की जरूरत है। तब पिता ने कहा कि इस समय अगर कोई योग्य गुरु है तो वह राजा जनक है। यह सुन कर सुखदेव ने कहा, आपकी बुढ़ापे में बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। वह राजा है, मैं हूँ ऋषि ! वह गृहस्थी, मैं हूँ त्यागी ! वह क्षत्रिय, मैं हूँ ब्राह्मण ! वह चक्रवती, मैं हूँ संन्यासी ! मैं उसको गुरु कैसे बनाऊँ ? वेदव्यास ने कहा कि उसके समान और कोई गुरु नहीं है। बाप ने हर बार उसे राजा जनक के पास भेजा, वह जाता और हर बार कोई न कोई बहाना लेकर रास्ते से वापस आ जाता। एक बार वहाँ पहुँचा भी, अब राजाओं के महल भी होते हैं, दरबार भी लगता है। कहता है, राजा बड़ा भोगी है, तभी तो मैं उसको गुरु नहीं धारण करना चाहता। अब नियम तो यह है कि अगर हम कमाई वाले महात्मा की निन्दा करें तो कमाई घटती है। सुखदेव ज्यों-ज्यों अभाव लाता रहा कमाई घटती गई। अब चैदह कला में से दो कला ही बाकी रह गई।
https://sudhirarora.com/kaber-ji-ki-pagdi/
जब तेरहवीं बार पिता ने उसे भेजा तो नारद जी ने देखा कि यह बेवकुफ तो लुटा जा रहा है। रास्ते में एक नाला पड़ता था। एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करके उसमें मिटटी फेंकने लग गया। इधर वह मिटटी की टोकरी भर कर पानी में फेंके, उधर पानी बहा कर, ले जाये। फिर मिटटी की टोकरी भर कर डाले, फिर पानी बहा कर ले जाये। सुखदेव ने देखा कि बूढ़ा आदमी है, पिछली अवस्था है। बड़ी मुश्किल से मिटटी की टोकरी भर कर फेंकता है, पानी बहा कर ले जाता है। उससे बोला, देख बाबा ! मेरी बात सुनो ! पहले छोटी-छोटी लकड़ियाँ रखो, फिर मिटटी के ढेले रखो और फिर ऊपर बारीक मिटटी डालो। बाँध लग जायेगा। अगर अपनी मरजी करता रहा तो वक्त बरबाद करेगा और सारी उमर लगा रहे तो भी बाँध न लगा सकेगा। नारद जी ने कहा, मेरी तो आज की मेहनत बेकार चली गई, लेकिन मेरे से भी बेवकूफ वेदव्यास का पुत्र सुखदेव है, जिसकी जनक पर अभाव लाने के कारण बारह कला बेकार चली गई, सिर्फ दो ही रह गई हैं। जब सुखदेव ने सुना तो बेहोश होकर गिर पड़ा। नारद जी अपना काम करके चल दिये।
जब सुखदेव को होश आया तो न वहाँ कोई बूढ़ा था, न कोई और। चल तो पड़ा, लेकिन मन में अहंकार था कि मैं वेदव्यास का पुत्र हूँ। शायद राजा जनक मुझे लेने आये, खैर राजा के दरबार में पहुँचा, इत्तिला करवाई कि वेदव्यास का पुत्र सुखदेव आया है। राजा ने हुक्म दिया कि बाहर खड़ा रहे। जहाँ खड़ा किया वहाँ साईस रहते थे। सारा कूड़ा-करकट, घोड़ो की लीद वगैहर वहीं फेंकते थे। लीद में दब गया। कई दिन हो गये इसी तरह खड़े हुए। आखिर जनक ने पूछा कि वेदव्यास का पुत्र आया था ? दरबानों ने अर्ज की, हुजूर ! वह बाहर खड़ा है। अब वह न पीछे जाने योग्य था और न आगे आने योग्य। राजा ने हुक्म दिया कि उसको नहलाओ, धुलाओ और पेश करो। राजा जनक ने यह देख कर कि इसको त्याग का अहंकार है और मुझको भोगी समझता है, एक नया कौतुक दिखाया। जब सुखदेव नहा-धोकर सामने आया, तब क्या देखता है कि राजा बैठा है, उसके एक पैर को तो औरतें अपने कोमल हाथों से दबा रही हैं, दूसरी ओर एक आग का चुल्हा है और दूसरा पैर उसमें जल रहा है। यह देख कर सोचता है कि ओहो ! मुझसे बड़ी भूल हुई है कि मैं इसको भोगी राजा कहता था। यह तो कोई महात्मा है। अब राजा ने दूसरा कौतुक शुरू किया।
एक नौकर ने आकर अर्ज की, हुजूर ! शहर को आग लग गई है। जनक बोला, हरि इच्छा ! फिर खबर मिली शहर की छावनी जल गई है। फिर बोला, हरि इच्छा ! फिर खबर मिली कि शहर की तमाम कचहरियाँ जल गई हैं। कहता है, हरि इच्छा ! फिर खबर मिली कि आपके महलों को आग लग गई है। सुखदेव मन में कहता है, बड़ा बेवकूफ है। इन्तिजाम नहीं करता। इतने में आग राजा के पास आ गई। यह देख कर सुखदेव ने अपना झोली-डण्डा सँभाला और भागने की तैयारी करने लगा। राजा जनक ने बाँह पकड़ ली और कहा, देख ! मेरी सारी सामग्री जल गई, मैने परवाह नहीं की, लेकिन तू झोली-डण्डा सँभालने लग गया है, जोकि आठ आने का या रुपये का होगा। तुझे अंहकार है ऋषि होने का ? अब बता त्यागी कौन है ? ऋषि चुप ! सुनता रहा। आखिर समझ गया कि मैं त्यागी नहीं, सच्चा त्यागी राजा जनक है। अर्ज की कि मुझे नाम दो। राजा ने कहा कि तू नाम के योग्य नहीं है। सुखदेव मन में सोचने लगा कि जिसको मैं पुण्य समझता था वह पाप निकला। आखिर राजा जनक ने एक कौतुक और दिखा कर नाम दे दिया।
जब सुखदेव गुरु धारण करके, उसके आदेशानुसार कमाई कर के बाप के पास आया तो उसने पुछा, गुरु कैसा है ? सुखदेव चुप ! अखिर बाप ने कहा, सूर्य जैसा है ? सुखदेव बोला, सूर्य जैसी चमक वाला हैं, लेकिन सूर्य में गर्मी है, गुरु में गर्मी नहीं। फिर बाप ने पूछा कि किसके जैसा है ? कोई जवाब नहीं। तब बाप ने पूछा, क्या चन्द्रमा जैसा है ? बोला, है तो चन्द्रमा जैसा शीतल, लेकिन चन्द्रमा में दाग है, गुरु में कोई दाग नहीं। बाप ने पूछा, फिर किसके जैसा है ? सुखदेव ने उत्तर दिया, गुरु जैसा कोई नहीं। गुरु जैसा सिर्फ गुरु ही है। वेदव्यास ने कहा, अब चाहे रोज विष्णु पुरी जाओ, कोई नहीं रोेक सकता।
कहने का भाव है कि गुरु जैसा कोई नहीं हो सकता
Comments 0