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Home Santmt ki sakhiya

Santmt ki Sakhiya in hindi / सूली का शूल

Sudhir Arora by Sudhir Arora
December 7, 2021
Reading Time: 1 min read
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Santmt ki Sakhiya in hindi / सूली का शूल

 * सूली का शूल *

एक बार का जिक्र है, एक साहूकार था जो अपने कारोबार में और लोगों से बहुत भिन्न था। उसे एक पूरे गुरु की खोज थी जो उसे सत्य की जानकारी दे सके। उन दिनों गुरु नानकदेव का नाम हिन्दुस्तान के कोने-कोने में फैल चुका था। इस साहूकार को उनसे मिलने की बहुत चाह थी, क्योंकि उसे विश्वास था कि वे ही उसे रूहानी भेद पाने का तरीका बता सकते हैं।
गुरु नानकदेव जर जगह-जगह की यात्रा करते हुए संयोग से उस साहूकार के गाँव में आ पहुँचे। उनके दोनों साथी, बाला और मरदाना, उनके साथ थे। उन्होंने कुछ दिनों तक उसी गाँव में रहने का फैसला किया। सैंकड़ो लोगों ने उनके सम्संग का लाभ उठाया और नामदान भी प्राप्त किया। इनमें वह साहूकार भी शामिल था।
साहूकार के घर के पास उसका एक पुराना और गहरा मित्र रामदास रहता था। वह भी साहूकारी करता था। गुरु नानकदेव के बारे में उसने बहुत-सी बातें सुनी थीं, इसलिये वह भी उनका सत्संग सुनने का इच्छुक था। एक दिन दोनों मित्र एक साथ उस महान सन्त के चरणों में बैठ कर सत्संग सुनने निकल पड़े परन्तु रास्ते में रामदास की नजर एक वेश्या पर पड़ी और वह उसके रूप और हावभाव पर मोहित होकर उसकी ओर खिंचा चला गया। उसके मित्र ने उसे रोकने की कोशिश करते हुए कहा, मुक्ति के आनन्द को छोड़ कर नरक की आग में मत कूदो। परन्तु उस का तर्क कुछ काम न आया। आखिर साहूकार अकेला ही सत्संग में चला गया।
रोज ऐसा ही होता रहा। दोनों दोस्त घर से इकटठे निकलते, रामदास वेश्या के पास रुक जाता और साहूकार साध-संगत में पहुँच जाता। रामदास पतन की ओर बढ़ता गया और उसके दोस्त की गुरु साहिब के प्रति भक्ति और श्रद्धा दिन-दिन बढ़ती गई। ऐसे ही एक महीना बीत गया।
एक दिन साहूकार ने रामदास से कहा, आज गुरु साहिब संगत को प्रसाद देने वाले हैं। एक बार तो अपने कुकर्मो को छोड़ कर मेरे साथ चलो। मनुष्य चाहे कितना ही पापी और गुनाहागार क्यों न हो, उसके जन्म-जन्मान्तरों के पाप धोने के लिये एक सत्संग ही काफी होता है। दोस्ती के नाम पर मैं तुमसे विनती करता हूँ कि आओ, आज मेरे साथ चलो। सत्संग में जाकर ही तुम समझ सकोगे कि सन्तों की संगति से क्या लाभ होता है और उसमें कितना आनन्द प्राप्त होता है।
श्रामदास ने बात सुनी-अनसुनी कर दी। फिर अपने मित्र से बोला, तुम रोज सत्संग में जाते हो और पुण्य कमाते हो। मैं रोज पाप करता हूँ। देखें आज हमें अपने-अपने कर्मो का क्या फल मिलता है। ठीक दोपहर को तुम मेरे घर आ जाना, दोनों बैठ कर अपना-अपना हाल बयान करेंगे।
यह कह कर रामदास जल्दी से वेश्या के घर पहुँचा, पर वह घर पर नहीं थी। निराश होकर वह वापस घर आया और अपने मित्र का इन्तिजार करने लगा। उस दिन सत्संग मेें और उसके बाद हुई बातचीत में उसका मित्र इतना खो गया था कि उसे समय बीतने का पता ही नहीं चला। इसलिए उसे घर पहुँचने में उस दिन बहूत देर हो गई।
मित्र के इन्तिजार की घड़ियाँ मुश्किल से कट रही थीं, इसलिये रामदास ने अपनी छड़ी से जमीन को कुरेदना शुरू कर दिया। जमीन नरम थी इसलिये मिटटी निकलती गई। थोड़ी देर के बाद छड़ी एक मिटटी के घड़े से टकराई जिसके मुँह पर ढक्कन लगा हुआ था। रामदास ने ढक्कन हटाया तो देखा कि ऊपर ही एक सोने की मोहर पड़ी है। यह सोच कर कि पूरा घड़ा मोहरों से भरा होगा, उसने जल्दी से उसे जमीन में से निकाल लिया। पर जब उसने देखा कि उसमें केवल एक मोहर है और बाकी सब कोयले के टुकडे़ हैं तो वह बहुत निराश हुआ। अपने को दिलासा देते हुए उसने कहा कि चलो, बिना मेहनत किये एक मोहर तो मिली।
उसी समय उसका मित्र लंगड़ाता हुआ चला आया। साफ दिखाई दे रहा था कि उसे बहुत अधिक र्दद हो रहा है।
क्या हुआ तुम्हें ? रामदास ने पूछा।
क्या बताऊँ, एक लम्बे काँटे पर अचानक मेरा पाँव पड़ गया और मैं जख्मी हो गया। मेरी तकदीर देखो कि काँटा मांस के अन्दर ही टूट गया और इससे मेरा र्दद और भी बढ़ गया।
इस पर रामदास हँसा और बोला, मेरे भाई, अब तुम खुद देख लो कि सत्संग में जाने का तुम्हें क्या फल मिला और पाप करने से मुझे क्या हासिल हुआ। तुम काँटे की चुभन के र्दद से बेहाल हो रहे हो और मुझे एक स्वर्ण-मुद्रा का तोहफा मिला है। क्या तुम अभी भी सत्संग का गुणगान करोगे ?
यह शब्द चाहे एक ऐसे व्यक्ति ने कहे थे जिसे सन्तों के सत्संग के आनन्द का जरा भी अनुभव नहीं था, फिर भी साहूकार के मन में शक पैदा हो गया। वह सोचने लगा, ऐसा क्यों है कि दुनिया में पाप फलता-फूलता है और नेकी करने वाले हमेशा दुःख और मुसीबतों ही झेलते हैं। मेरा मित्र लगातार पाप करता रहा और मैं सच्चे दिल से तुम्हारी भक्ति करने की कोशिश करता रहा, फिर भी उसे मोहर मिली और मुझे मिला शूल का असहनीय र्दद। सतगुरु की संगत में जाने का कोई लाभ है या नहीं ? क्या मुझे गुरु के दिखाये रूहानी मार्ग पर चलते रहना चाहिये ? यह सब भ्रम, एक धोखा, ही तो नहीं ?
बहुत देर तक रामदास के साथ इस विषय पर बातचीत करने के बाद उसके मन में विचार आया कि क्यों न गुरु साहिब के पास जाकर उन्ही से इस पहेली को सुलझाने की प्रार्थना की जाये।
जब दोनों ने अपनी आप-बीती गुरु साहिब को सुनायी तो गुरु साहिब ने अपनी रूहानी शक्ति से दोनों के पूर्व-जन्मों पर दृष्टि डाली और पहले रामदास से कहा, पिछले जन्म में तुमने एक मोहर दान की थी जिसके बदले में घड़ा-भर मोहरें तुम्हारे भाग्य में लिखी गई थी। परन्तु इस जन्म में तुम मुरे कर्म करने लगे। जैसे ही तुम पाप करते थे, एक सोने की मोहर कोयले का टुकड़ा बन जाती थी। आज तुमने पाप नहीं किया, इसलिये एक मोहर तुम्हें मिल गई, वरना यह भी कोयले का टुकड़ा बन गई होती।
फिर गुरु साहिब साहूकार की ओर मुड़े और बोले, पिछले जन्म में तुम एक बेरहम बादशाह थे, जिसके हुक्म से कई लागों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इन कुकर्मो का बदला तुम्हें जुल्म सह कर और फाँसी के तख्ते पर लटक कर देना था। परन्जु तुम सम्संग में जाते थे और तुम्हारा गुरु से मिलाप हो गया था, इसलिये तुम्हारे कर्मो का बोझ बहुत हलका को गया। इतने लोगों के कत्ल के बदले तुमने क्या भुगता ? एक र्ददनाक मृत्यु नहीं, केवल एक काँटे की चुभन !
गुरु साहिब की बातें सुन कर दोनों उनके चरणों में गिर पड़े और अपने गुनाहो की माफी माँगने लगे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, दोनों का मन निर्मल होता गया ओर उनकी जिन्दगी ही बदल गई। दोनों साध-संगत की सेवा और गुरु-भक्ति में अपना समय बिताने लगे।
सत्संग और गुरु की महिमा अपार है जो सूली को शूल में बदल देते हैं।

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